शिव स्वरूप की महिमा - शिव की महिमा - विद्येश्वर संहिता - Shiv Swaroop Ki Mahima - Vigneshwar Sanhita

विद्येश्वर संहिता

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तीरथराज प्रयागहु ,अति रमणीय पवित्र।
जुरे जहां सब मुनि अमित, रचना रची विचित्र।

व्यास शिष्य ऋषि सूतहु आये। भल सनमान मुनीषन पाये।
व्रम्ह तेज राजय आनन हूं। बड़ प्रभाव कहि सकय कवन हूं।
चर्चा कलि प्रभाव की भयऊ। भांति अमित तहं मुनिवर कहेऊ।
जीव पाप अरु ताप ग्रसित हो। सत्य कर्म से जहां विमुख हो।
पर निंदक पर स्त्री गामी। चोर पातकी देहभिमिनी।
व्यसन वासना महा पियारी। कामिनि आनन मंगल कारी।
आत्म ज्ञान सपनेहु नहि होई। नास्तिक हैं कहिहयि सब कोयी।
काम दास हैं नारि पियारी। धर्म हीन होई भुंइ भारी।
ब्राम्हण लोभी वेदहु बेंचिहंइ। जाति कर्म तजि सब कुछ करिहंइ।
चारिउ वर्ण जहां होइ पापी। कुटिल कामना मन मा व्यापी।
सब विपरीति और होइ उलटा। पतिब्रता जन जनिहंइ कुलटा।
होइ निर्लज्ज कामिनि बाला। रतिगामी होइ पींह्इ हाला।
सपनेहु सुजन लखांइ न जबहीं। जानहु कलि प्रभाउ मुनि तबहीं।
कहहु कवन विधि जन हिंया, तरिहंइ सागर पार भव।
पौराणिक बोले बचन, सादर धरिके ध्यान शिव।

प्रश्न मुनीश कीन्ह हितकारी। धरि गुरु ध्यानहु गिरा उचारी।
पाप नाशि कलि के होइ जाते। दुर्लभ शिव स्वरूप उर आते।
वेदान्त सार सर्ववस्व महा है। शुचि सुंन्दरहु पवित्र सदा है।
रहेउ रहस्य गूढ यह जबतक। घोर पाप कलि फैले तब तक।
शास्त्र विवाद और उत्पाता। थे सभ पाप शाप के दाता।
सुनहु महत्मा सावधान हो। मुनि महान सब प्रभावान हो।
मात्र पढति श्लोक के, मिटहिं सदा को पाप।
सावधान आचरण ते, अश्वमेध फल लाभ।
पूजा मात्र पुरानहु ही के।सुर पूजा सम फल बड नीके।
नहि संदेह शेष कछु भाई।कहहुं यथार्थ न करंउ बडाई।
शिव संहिता उमा पति हिय की।छांडि चाह को करय अमियकी।
मात्र पठन अरु मननहु हियते। अद्भुत फल पा्हिं जन नीके।
तीनि बार पढि शिव मूरति सन।मन भांजियों फल पावंहिं सब जन ।
शिव सम को उदार त्रिभुवन में।दें सरबस्सहु मात्र जतन में।
महादेव महिमा अमित,दे्वि न सकंइ सखानि।
सोंचति मनंहि अनन्त हो,अनत अनन्तहु जानि।
सरल युक्ति सब मुनि चहहिं,मन लालसा अपार।
पापी कलि की सृष्टि यह,जेहि विधि हो भव पार।
प्रश्न मुनिहु त्रिलोक हितकारी।धरि गुरु ज्ञानहु गिरा उचारी।
धर्म कर्म अरु मोक्ष ज्ञान की।अति महिमा शिव नाम राम की।
शिव लीला विज्ञान निहित है।योग शास्त्र संपू्ण सहित है।
बहु प्रकार सुर पूजति निश दिन।पावंहिं भक्ति ज्ञान निर्मल मन।
रचना पहिले शिव पुराण की।सर्व संहितायें तमाम की।
पावन पू्ण्य रहस्यमयी जो।ज्ञान ध्यान की ज्योति‌ नयी जो।
विश्वेस्वर अरु रुद्र विनायक।तीनि संहिता अति सुखदायक।
रुद्रहु उमा संहिता पावन।कैलास और शत रुद्र महाधन।
कोटि व सहस कोटि की महिमा।वायवीय की मंगल गरिमा।
धर्म संहिता उत्तम विस्स्त्रित ।लाख श्लोक का‌ ग्रंथ अपरिमित।
सृष्टि आदि में स्वयं उमापति।कही करोड श्लोक में यह श्रुति।
सात संहिता आज शेष हैं।निर्माता जिनके महेश हैं।
आदर सहित भक्त जो पढिहैं।जीवन मुक्त जीव होइ जैंहय।
पाठ करय मन लाइ जो,शिव चरनन धरि प्रीति।
हो पावन प्रिय शंभु को,लेइ परम गति जीति।
बोले व्यास मधुर अति बा‌नी। तुम त्रिकाल दर्शी मुनि ज्ञानी।
करंहु प्रार्थना दुइ कर जोरी।  मुनिन पुरान सुनावहु पूरी।
सुनति सूत मुनि अति प्रसंन्न हो। धरेउ ध्यान शिव चरन कमल को।
मुनि सब तुम परमारथ वादी। धर्मवान अरु रूप विरागी।
चारिउ वेद पुरान सार यह। भक्त और बुध आये सब कह।
भक्ति और वैराग्य त्रिवेनी। बहयि अवनि सुख मंगल देनी।
पू्व॔ काल में पुनि पुनि,कल्पहु भये विनिष्ट।
तब कलि प्रादुर्भाव भा,उत्पन्न भयी फिर सृष्टि।
षट कुलीन मुनि ब्रम्ह तेज सम।भा मतभेद भेद अंतरतम।
सबसे पर की पुष्टि होन हित।मुनि सारे गे ढिग व्रम्हादिक।
तब विरंचि दिन्हेउ मत आपन। श्रेष्ठ स्वरूप उमापति पावन।
सृष्टि आदि सब भा उत्पन्न। चेतनता को किए प्रसन्न।
मनवाणी के रूप अनेका। किए विमल उत्पन्न विवेका।
ब्रह्मा विष्णु रुद्र इंद्रादिक। महाभूत करि जग स्थापित।
चेतनता चैतन्य मई है। सभी इंद्रियां विलय हुई हैं।
सबसे पर शिव का स्वरूप है। सूचि सुंदर अति ही अनूप है।
परम भक्त के की मात्र सहारे। जगदीश्वर जग होंय हमारे।
इन्द्रादिक सूर दर्शन हित हूं। कोटिक करें प्रयासहु नित हूं।
विश्व जाल नाना कटि जाते। उर में ध्यान जभी शिव आते
वर्ष सहस्त्र भक्ति ले पावन। प्रगटय ज्ञान पयोध सुधा सन।
पूछहिं मुनि हे सूत जी, कहहु हमें समझाय।
साधन साध्य अरु पद कमल, स्नेह सुधा बरसाय।
करइ साधना साधक कैसे,मुनिवर महा बताओ वैसे।
विधि वेदहु ते शिव उपासना। देइ परम पद रुचिर साधना।
जयिस करें फल वैसे पावय चाहे जीव जहां भ्रमि आवे।
संबंधहु मा ई स्वयं, दे पुरारि निर्देश।
मन क्रम वचनहु मात्र ते ,दूरि होति हैं क्लेश।

यह महान साधन उपकारी।जस महेश को मंगलकारी।
महा रहस्य गुढ अति सुंदर,साधक पावहिंअति उत्तम वर।
हो प्रयास मन में विश्वासा। निर्मल मन नभ में शुचि आशा।
पहिली श्रवन करे गुरु मुख से,कीर्तन मन और श्रवन सकल ते।
साधन क्लेश होंइ जब पहिले।आनंद आवय मग मंगल ले।
साधन साधहिं भक्त जब,विश्व भक्ति मय होय।
नाशै माया छल प्रबल,जन्म कृतारथ होय।

भक्ति प्रकाश करय मन जब हीं।संपति सिध्दिसिहावहिं तबहीं।
यश लोलुप और धन के मद हूं, फेरन चाहंहि माया मति हूं।
पर कित टरय साधु मन पावन,राजे ब्रह्म बहोरि सुधा सन। 
भक्ति भक्त भक्ति के मृदुल प्रभाऊ,गाइ न सकय सृष्टि कलिकाऊ।
महा घोर तम जित न प्रकाषू ,माया महा बनी परतापू।
दनुज मनोज सुर सही नचावत, शांति कहां जंजालहु भावति।
जीव भ्रमित हो महा दुखारी ,खोजय विकल पंथ हितकारी।
मन गतिमान दग्ध हृद दारुण,तन अति व्यथित अमित ले कारण।
मिलय न कहूं शांति अवलंबन,भ्रमित पड़ा दुख दारूण बंधन।
घेरे काम क्रोध अरु मद हूं,छल प्रपंच की दुख रजनी हूं।
पाप पुण्य तारक से फैले,जीव नचावति नव माया ले।
माया नटी हो काम लजावहिं, अति रमणीकहु दृश्य देखावहिं।
पुरुषहु विरले हो व्रत धारी,पावंहि भक्ति ज्ञान तप भारी।
दुर्लभ भक्ति पंथ अति नीका,लोक मनोरम प्रिय भक्तन का।
पापीन को नहीं भक्ति का,मंगल रूप लखाय।
नाना बिधि अति नीक हो,पापहु रहे लोभाय।
परम साध्य पद शिवकमल,साधन पावन भक्ति।
साधक आदि शुचि शुद्ध हो आराधहिं नव युक्ति।

करय जयिस वैसय फल पावे।यहि सन शिव कर यह मत भावे।
श्रवण मात्र अरु मननहुं हूंते,लहहिं श्रेष्ठ फल सुरपुर ही ते।
परम पवित्र महा सुखदाई,शिव की कथा जे जन मन भाई।
दृढ़ निश्चय अटूट विश्वासा,बुध अरु संतन के मत भाषा।
भक्ति बछल सुंदर हितकारी, शिव स्वरूप नर पावहिं भारी।
साधन माही कलेशहु ,नाना भांति भ्रमाइ।
आनंद मंगल अंत में, जनहूं देति गहाइ।

श्रवण मनन का कहहु मुनीषा। कीर्तन व्रत को रूप विशेषता।
रूप नाम गुण अमित प्रकारा ।जप पूजा शुचि एक आधारा।
मनन अनेक युक्ति सों शिव की। पार ब्रम्ह श्री महादेव की।
बारंबार नाम शिव पावन ।कीर्तन कलिमल पाप नसावन।
ब्रह्म स्वरूप सुनयिश्रवनन ते।स्थिर चित्त अरु मंगल मन ते।
हो सत्संग मनोरम पावन।चिंतन मननहु पाप नसावन।
आत्मा होइ पवित्र तब ,आत्मज्ञान को पाइ।
भक्तिहु विविध रूप तजि,भक्तहु कछु न लखाइ।

अति प्राचीन एक इतिहासा।सावधान सुन वेद प्रकाशा।
तट सरस्वती उत्तम पावन।कलि प्रभाव अरु पाप नसावन।
करहिं जहां तप व्यासहु पावन।सनत्कुमार बैठि मनभावन।
कहहु महा मुनि अमित उदारा।तुम केहि हेतु करहु तप न्यारा।
बिन तब के शिव सों सब पावहिं।रंचक भक्ति जो मन मंह लावहिं।
मुक्ति हेतु तप मैं करहुं,कहेउ व्यास हरषाय।
भ्रम बस मंदराचल पर,मैं तप कीन्ह उपाय।

शिव आयसु पा आ नंदीश्र्वर।संशय दूरि कीन्ह अपने सब।
श्रवण मनन अरु चिंतन महिमा।देइ अमित फल सुंदर गरिमा।
बिना प्रयत्न कोई मोक्ष न लहही।श्रुति और शास्त्र वेद अस कहंही।
कहहु देव यह कथा बुझाई।महा रहस्य राशि विलगाई।
अबलंबन शिव सृष्टि के, चेतनता के प्राण।
आराधहिं सब सुर सदा,लहंइ मोक्ष निर्माण।

महिमा शेष कहंहि किमि शारद।जानि न जाए अनंत विशारद।
लिंगेश्वर जन करि स्थापित।पूजहिं परम रम्य शिव को नित।
मोक्ष परम पद पावें वही ही।अस पुरान सम्मत श्रुति कहंही।
मुनि विस्मित हो पूछेउ कैसे।वेर मात्र पूजा सुर जैसे।
संभव किमि सुरनहु की पूजा। लिंगेश्वर अद्भुत कि करिजा।
सुनु मुनीश जो कहा उमापति। गुरुमुख सुनेउं और नाहीं कित।
परम ब्रह्म निष्कल शिव, कलायुक्त अरु बिलग।
निराकार अरु निरामय,लिंग भेद हैं अलग।
साकार रूप रम्य अति पावन। दुर्लभ सुरहु रम्य मन भवन।
निराकार शिव परम ब्रह्म हैं।आनंद मय अरु महा रम्य हैं।
निर्गुण सगुण दोऊ रूपन सों।आराधहिं सब नित हरिहर को।
देवन्ह माहिं और यह नाहीं। निष्कल लिंगहु पूजा पाहीं।
ब्रह्म रूप शिव दीन दयाला। ओम राशि निधि महा विशाला।
विष्णु-बिरचिहूँ युद्ध भा, पूर्व काल में जाइ।
संरक्षण हित सकल के, लिंग प्रकट भा आइ॥

निष्कल लिंग बेर जग माही। प्रगटे परम. रूप ले जाहीं।
ग्रहण कीन्ह सुर बेर मात्र को। पूजि पूजि हृदू मूदुल नाथ को।
फलदायक वह पावन ऐसे। सिद्धि लजाहिं प्रभावहु देखे।
देइ अमर फल सुर बुध हूँ को। जग अन्यत्र दुर्लभ सब हूँ को।
शिव के बेर लिंग दोउ पावन। पाप शाप अरु ताप नसावन।
नारायण थे शेष की शैय्या पर आसीन।
बामांग सुशोभित श्री जहां आए विधि होय दीन।

उठहु पुत्र लोकहु बहु भांती। सम्मुख आजु ईश अविनाशी।
कहहु कौन दो परिचय अपना। कहहु यथार्थ छांडि सब सपना।
हरि हृदय मां भा क्रोध अपारा।करतय विधि के शब्द प्रहारा।
तदपि न कीन्ह प्रकट कछु श्रीपति ।तलमलाइ गय सुनति महामति।
पंचानन हो कहेउ बहोरी।आओ पुत्र तोरि मती भोरी।
संरक्षक केबल में तुम्हारा। आत्मज में सारे संसारा।
कहेहु विष्णु  का गाल बजावति। पूर्ण विश्व एमएम उर सो आवति।
नाभिकमल सो मम प्रकट, अइस रहे बतियाय।
मुघ्ध रजो गुण सो दोऊ, युद्ध करन मन लाय।
तुम सुत हो मैं पिता तुम्हारा।आनन वक्र को जानन हारा।
कह विधि समय प्रभाव के कारण।उपजा हियअभिमानहु दारुण।
संरक्षक केवल न तुम्हारा ।आत्मज मैं सारे संसारा।
कहेउ विष्णु का गाल बगावति।संपूर्ण विश्व मम उर सों आवति।
नाभि कमल हों मम प्रकट,आइस रहे बतियाय।
मुग्ध रजोगुण सों दोऊ, युद्ध करन मन लाय।

हंस गरुण चढ़ि दूनव ऊपर। करंय युद्ध त्रिलोक परस्पर।
वाहन क्रुद्ध लडयंआपस मा।वरसहिं सुमन सूरनते नभमा।
विष्णु कीन्ह अति व्याकुल हरि को। विधिहूं कीन्ह प्रहार अमित को।
अनगिन अस्त्र-शस्त्र सब बरसे। देव सभी मन अपने डरपे।
दूनव ईश अजर अविनाशी।ज्ञान रूप अरु घट घट वासी।
मन मा अहम रजोगुण,हो माया में लीन।
भूले भक्ति विविध हूं,युद्ध बहुत दिन कीन्ह।

हरि माहेश्वर अस्त्र चलावा।विधि हूं अति पीडा पहुंचावा।
पाशुपतअस्त्र जवहिं विधि मारा त्राहि-त्राहि सब सुरन पुकारा।
सकल सृष्टि पर शिव अधिकारा। वहीं उमापति जग आधारा।
कहि सुरअइस गए ढिग पावन।जित भगवान शंभु मन भावन।
परम रम्य पावन सिंहासन,उमा संग जित प्रभु का आसन।
सुरन कीन्ह साष्टांग प्रणामा।कहि सच्चिदानंद सुख धामा।
सकल सुरन को उमापति,अपने पास बोलाय।
बाणी अर्थ गंभीर ले ,बचन कहे मृदु जाए।

कुशल क्षेम हर पूछ सुरन ते। वचन कहे मृदुअपने मन ते।
पुत्र कहहु मोहि कथा सुनाई। विष्णु बिरंचिहु केरि लड़ाई।
व्याकुल सुर मुनि सकल चराचर। देवन्ह कहे वचन सब मिलकर।
शांति देव लखाय कहूं ना।या में कछु प्रभु है संसय ना।
सुनि के बचन कृपालुहु विहंसे।देव सभी मन मह अति हर्षे।
महा परम पद शिव को पावन। पाप ताप अघ अमित नसावन।
युद्ध समाप्ति हेतु गण पठये।अरु आसीन भव्य रथ पर भे।
लिए इन्द्र को संग बहोरी। चले उमापति महा अघोरी।
लुकि छिपी युद्ध भांति बहु लोकलति पराक्रम को रूप बिलोकति।
हो त्रयलोकहु भस्म भवानी।महादेव मन जब अस जानी।
जगत पिता जो जग आधारा।भृकुटि विलोकति जिन संहारा।
वहही परम रूप अविनाशी। सकल सृष्टि के घट घट वासी।
परम भक्त अरु दोऊ वीरा। रूप ईश के अति गंभीरा।
चाहत करन वहू संहारा। आशुतोष अस हृदय बिचारा।
कौतुक देखति देर भई, करि विचार मन मांहिं।
मध्य प्रकट करि लिंग को,शिव दीन्हेउ विलगाय।

आश्चर्य महा संसय ह्द उपजा। युद्ध करन हित मन कछु लरजा।
देख लिंग का रूप अलौकिक ।रमे ईश माया मे चहुं दिक।
परम ब्रम्ह जानंइ अपने को ।लखि प्रभाव बडआजु अखिल को।
दोनउ पुण्यभगति पथ गामी। जो पहिले थे अंतर्यामी।
वह हू आजु भये माया बश।त्रयलोक्य मांहिं डूबे ले सब जस।
करति विचार मनोज की नाई ।ध्यान धरे शिव सत्य गोसांई।
करंइ विचार लिंग को देखहुं।यही का आज प्रभाव विशेषहुं
एक ही साथ विचार यह,उदित भये मनमाहि।
धन्य शक्ति शिव रुप की,बरनी जसको जांहि।
ब्रह्मा विष्णु दोऊ भगवाना।जिनके हूं अस चरित बखाना।
कवन मनु की गति इत होई। जानय अब कृपालु वह सोई।
जगत जटिलता अरु यह माया।जन्मा जग जो वाहि भ्रमाया।
सात्विक राजस तामस रूपा।राजति सृष्टि अनादि अनुपा।
अरुढ शंभु उत सोहंहि कैसे।तीनिहु गुण की मूर्ति जैसे।
उपमा कवि हूं लखै न जग में। विद्यमान प्रभु जित घट घट में।
देवन सहित चले सुर पति हूं ।वीर वेष शिव लागति नृप हूं।
छिपे घनन रण देखहिं भीषण। जीत ना सकें दोउ जोधा बड।
अग्नि स्वरूप लिंग तब देखेउ। महा आश्चर्य नैन निमेंषेहु।
चाहहिं देखन लिंग अनूपा। शिव सुंदर कर दिव्य स्वरूपा।
ब्रह्मा चले आकाश दिशि, विष्णु पताहु लोक।
शूकर होय हरी हूं चले, विधि हूं हंसारूढ।

विष्णु पताल चले मन हरषे। ह्दय लालसा शुचि कलि सरसे।
चलत थके बीता बहु काला। लिंग रूप अति महा विशाला।
आदि अंत जानंइ किमि,लहंइ जन्म फल नैन।
थकहिं निहारि न नैन शुचि,चहंहिं भक्ति फल लेन।

भ्रमें बहुत पाए बिन अंता। शंभु स्वरूप ब्रह्म भगवंता।
दूनहु देव थके बहु भांती।पायो आदि ना अंत अनादी।
हंसा रूढ पुष्प विधि देखेहु।जानि आदि मन माही विलोकेउ।
वापस तुरंत चले शिव पाही।संशय नाहि ह्रदय सो जाहीं।
थकी बहुत कमलापति हूं जब। वापस चले ध्यान धरि शिव तब।
स्पर्श कीन्ह पद विधि हरि हर के। संसय कहि न सकति मन भरिके।
विधि कौतुकी जानि फिर बोले। करति विचार महा प्रभु भोले।
अति प्रसन्न हो विष्णु को,पावन दे आशीष ।
मो सम पावन पूज्य का,वर शुभ दीन्ह गिरीश।
भौहन सों भैरव प्रकट,महावीर बलवान ।
हाथ जोड़ आयसु चहत,बोले कृपा निधान।
बिधि हूं फल दो भैरव ईका।सत्य वचन सब ही करि नीका।
रूप विकट अतिशय बलवाना। आयसु पाइ गही किरपाना।
जो मुख बिधि हूं झूठ बोलाई।पहले काटी वहै महि पाई।
शेष चारि जो चाहति काटन।भय बस लागि सृष्टी सब कांपन।
ब्रह्मा पर शिव को अति क्रोधा। होति न मन केहि भांति प्रबोधा।
केश पकरि शिर के अति नवाचति। विधिहूं भय सों थरथर कां पति।
हो भयभीत बालकन नाई। थरथर कांपति विष्णु गोसाईं।
अनुनय विनय कीन्ह विधि, भूलहु पर पछिताहिं।
कटि माया गय सब सकल,अवगुण कछु न लखांहि।

विधि गिरी के भैरव चरनन में।आत्म ग्लानि बहु मनअपने में।
करुनाकर कृपालु भगवाना दिए पंचमुख विधि को नाना।
प्रभु उदार अर अंतरयामी।क्षमाशील अरु सबके स्वामी।
क्षमा विधिहिं करहूं अब पावन।स्तुति करति विष्णु मन भावन।
हो प्रसंन्न अब महा महेशा।विधि के हरिके पूर्ण क्लेशा।
शंभु गणन मध्य जा प्रकटे।रोकि यथा मत आपन प्रकटे।
कीन्हेउ छल हित मान प्रतिष्ठा।ईश्वर तत्व रुप यहा निष्ठा।
आनन विहीन विधि हों कहे,शंभु वचन यहि भांति।
उत्सव सत्कार ठांवां बिन,जग में पयहहु कांति।
कहि कइ वरद चहंहिं सिर पंचम। प्रभु केहि भांति हरहु अब यह तम।
अराजकता अरु विश्व विविधि को। अपराधिहुं दंड विधान साथ को।
लोक लाज मर्यादा पालन। का वर दिन उमापति वहीं छन।
आर्य गुणन सबके तुम होइहउ। सुख सुंदरहु सकल मा पइहउ।
मिथ्या भाषी केतकि पुष्पा।दुष्ट दूरि जा षट भव कूपा।
पूजा योग्य न होइ हउ कबहूं।कहत तुरंत दूर जो भयऊ।
स्तुति करति पुष्प बहु भांती। दूरि पाप कर दो आराती।
मात्र कृपा सो लहहुं परम पद। दूर करो प्रभु म inहा अधम पद।
होंइ मृषा केहि भांति बचन शिव। अति उदार फिरि कहति सदाशिव।
तदपि न मैं करिहंउ स्वीकारा। हो मम भक्तन अंगिकारा।
शिव मंडल सिरमौर हो,करहु जन्म को धन्य।
मम भक्तन तुम सम प्रिय,पुष्प न कोई अन्य।
ईश्वर केतक विधि हरी हर हूं। आये मध्य सूरन के तब हूं।
कर को जोरि नाय निज माथा।जन्म करन को चले सनाथा।
कर स्तुति अरु करिके पूजा।तुम सम जग जाया नहिं दूजा।
बाणी कर्म अउर प्रिय मन ते।स्तुति करते भक्ति शुचि तन ते।
अमित दान उपहारहु दीन्हें‌।परम प्रसन्न उमापति कीन्हे।
मैं संतुष्ट वत्स पूजा सन। महा रात्रि शिव अरु उत्तम दिन।
परम पवित्र जाइ नहि वरना।भक्त चहंहि पुनि पुनि शिव चरना।
पावन तिथि त्रिलोक हितकारी। पूर्ण महा अति सुंदर न्यारी।
लिंग भेद करि शिव की पूजा।सृष्टि विधायक हों फल पाजा।
जितेंद्रिय अरु निराहार हो।पूजहिं शिव को अति उदार हो।
प्रपंच रहित अरु पावन प्रिय मन।पूजहिं शिव को शुचि सुंदर जन।
पूर्णचंद को् लोकि उमडतअखिल समुद्र।
वयसय पावन पुण्य तिथि होय प्रसन्नहु रूद्र।

आद्रा रूप लिंग सुखदाई।अगहन मास मनोहरताई।
उमा सहित जो पूजहिं हर को। लाहहिं पूर्ण फल जन्म-जन्म को।
कार्तिकेय से अधिक पियारे।प्रभु भक्तन के बड रखवारे।
बानी पूजा अरु दर्शन ते।फल कहि जाय न जनम जनम ते।
आवागमन मुक्त कर दाता।अरुणाचल सब भांति प्रतापा।
परमेश्वरहु लिंग को मानहिं। पांचों मुक्ति युक्ति बड जानहिं।
होय प्राप्त सब प्रिय इष्टन को। शिव स्वरूप जानहु कन कन को।
त्रयलोकी के युद्ध में,सृष्टि भई जो नाश।
अमृत वर्षा कीन्ह शिव,वहुरिआइ गय सांस।

दोनों की शत्रुता विशेषी,शिव शंकर ने क्षण मह मेटी।
निष्कल सकल रूप दो पावन।भक्तन के सुंदर मनभावन।
ईश्वर नाहिं कोउ जग माही। सिद्ध लिंग के रूप सुहाहीं।
स्वयं रूप अज्ञान बस,ईश्वर निज को मानि।
अहं त्यागी भक्ती करहु,मोहि सदा शिव जानि।

परम ब्रम्ह अरु लोक प्रकाशू।निष्कल कला ललित यह जासू।
गुरु के वाक्य प्रमाण सदा हैं।दुख-सुख सारे यदा-कदा हैं।
परम पुनीत देखि शुभ प्रीति। निर्गुण सगुण भक्ति की रीति।
ब्रह्म ज्ञान उपदेश करन हित।प्रगट रूप में आयंहु मैं इत।
निष्कल स्तम्भहु ब्रह्म स्वरूपा।ममआत्मा को रूप अनूप।
स्थापना लिंग हित,किये प्रतिष्ठित रूप।
बेर लिंग में गौड हैं,अद्भुत लिंग स्वरूप।

सर्गादि सब हर कहे, पावन बचन सुनाए।
जो विधि अरु हरि ह्रदय को, भांतिअमित गेभाय।
ज्ञान गुह्य मम सारे काजा।तदपि सुनो अब देव समाजा।
सृष्टि स्थित संघार अनूपा।तिरोभाव अनुग्रह अनुरूपा।
पांचो महा सिद्धि जग माही। या में है कछु संशय नाही।
संसर्गआदि शुभ सर्ग सुहावन।राखेहु जिम वह स्थिति पावन।
आरु विनाश संहांर सकल का।तिरोभाव जानउ मंगल का।
मोक्ष महान अनुग्रह जानउ।या में पंच कृत्य ही मानउ।
इन कर्मनहु सृष्टि संचालित।सदा करति आयंहु ही मैं इत।
जो मोहि भजहिं मुक्त वह पांवहिं।पंचकृत प्रभाव महान बढावहिं।
एक मुख हरि दिशि मंजुल। पंचम बुध विद्वानहु का कुल। ‌
बत्स तपस्या बल भलि भांति।स्थित सृष्टि तुम्हें अति भाती।
अइसइ रुद्र महेश पुरारी। संसार तिरोभाव पा भारी।
अनुग्रह नाम कृत्य प्राचीना।तुम सब भूलि रहेव लवलीना।
रूद्र महेश न भूले वहिका।तुम सब भूलि न जानउ जेहिका।
भूल मात्र से सुनहु तुम्हारी।यश कृत्य रूप भयंउ मैं भारी।
वाहन युधा आदि को राखेउ।तोहि मूढता के पद भाषेहुं।
संरक्षण कर दान रूप को। जपहु ओम अद्भुत अनूप को।
यहि ते रूप मान बढ़ि जाई।परम ब्रह्म का रूप सुहाई।
ओंकार बोधन प्रिय मंत्रा।साधन सकल सृष्टि के तंत्रा।
यह वाचक मैं बाच्य अनूपा।मम आत्मा का नवल स्वरूपा।
उत्तर दिश हर मुख करि,विधि हरि दे उपदेश।
दीन्हेंउ शुचि गुरु मंत्र को,दूर कीन्ह सब क्लेश।
करि अर्पण आपनहूं हर को। आत्म रूप भे मिलि शशिधर को।
पानि चोरी करि कीन्ह प्रनामा।कहि सर्वेश अखिल सुख धामा।
करि प्रणाम फिरि बारंबारा। गदगद कंठ भक्ति ले धारा।
निराकार भोले शिव, पुत्र सुनो उचित लाइ।
जो बरनेहुं सब तत्व है,जपहु सत्य को जाए।

प्रत्यक्ष ज्ञान आरु दर्शन पयहउ।भाग्य विधायक मंत्र कहहिहउ।
जपउ महा मम मंत्र पुनीता ।अद्रावली महान विनीता।
आद्रावान महा अति पावन। मंत्र करोड़ गुना मनभावन।
प्रातः संध्या करिके दर्शन। लहंहि परम फल उत्तम जीवन।
लिंगभेद पूजा अति उत्तम। पंचाक्षर ओंकार मनोहर।
सुलभ महा पावइ पद मोरा।कहि शिव अंतर्ध्यान अघोरा।
लिंग स्थापन कौन विधि, मोहि कहउ समझाय।
मुनि पूंछहिं श्री सूत सों,भक्ति अलौकिक पाय।
देश काल हूं कवन प्रकारा।अर्चन समझाओ आधारा।
गंगादि आदि प्रिय पावन सरिता।लिंग प्रतिष्ठित करि मन मुदिता।
पूजा नित्य चरन हरिहर के। द्रव्य धातु तैजस को करिके।
रुचि अनुसार लिंग करिरोपण। ध्यान धरे शिव के पद हर क्षण।
चर अरु अचरहु मूर्ति मनोहर। स्थापित करि सिंहासन पर।
पहन लौह मूर्ति अति उत्तम।अंगुल बारहअति प्रिय लिंगम।
न्यून भये फल न्यूनहि देई।बुध अरु संत कहति अस तेई।
अधिक भये ते कछु नहीं दोषा।भक्तन के मन माहिं प्रबोधा।
लिंग बेर दोनों फलदायक।स्थावर जंगम सब लायक।
लिंग अरु गुल्म लतादि मनोहर।जंगम कीट सुखादि धरोहर।
स्थावर जंगम आराधहिं। बुध अनुराग पूर्ण प्रिय साधहिं।
बहुतहु पूजहिं शिव यहि भांती।गोद उमा जित दिव्य सुहाती।
महा लिंग को करि स्थापित।पूजहिं भक्त अनेक भांति नित।
पुष्प धूप नैवेद्य चढ़ावें।तर्पण अर्घ महा मन भावहिं ।
लहंइ परम पद शिव अनुरागी।होइ के लिंग परम के भागी।
लिंग उपचारहु की विधि एका।संत कहति मृदु मनहिं विवेका।।
नियमित जो शिव दर्शन करहीं।रम्य लोक शिव पावन बसहीं।
पूजन दोष नाहि विधि कवनेहु।पूजहिं भक्त चहय विधि जवनेहु।
फलदायक सर्वत्र उमापति।संतन हूं को अइस महामत।
लिंग दान का पुण्य कहइ जो।जानइ वह ही लहै वहै जो।
दस हजार जप प्रणब सुहावन।लहइ परम पद शिव को पावन।
पंचाक्षर जप प्रणव लगावे। गुरुसन मंत्र विविधि विधि पावे।
गुरु ज्ञानी हो धर्म धुरीना। ब्रह्म तेज कहि सके कोउ ना।
नमन शब्द का कहिके पहिले।द्विज स्त्री ऐसे ही बोले।
पांच करोड जाप पंचाक्षर।जप करि कहति होति सम हरिहर।
एक हजार आठ जप भारी।निर्मल भक्ति देंय सुखकारी।
बड़े बड़े हैं मंत्र विशेषहु।जपन मात्र ते शिव आराधहु।
जपय मंत्र जोई जेहि ध्यावहि।ॐ मनोरथ सफल करावहि।
बुधहु निवास क्षेत्र शिव करहीं।महा पूण्य उत्तम फल लहहीं।
कुआं तालाबहु और तलाई।क्षेत्र पुनीत माही जो जायी।
शिवगंगा अमोघ फल देनी।जप तप ध्यानहु त्रिविधि त्रिवेनी।
विशेष महत्त्व महा कलयुग में।जो दुर्लभ अति सारे युग में।
वर्णन करूं क्षेत्र अब पावन।कलिमल हूं के पाप नसावन।
कौन सके शिव क्षेत्र की,महिमा महा बखान।
लहन तुरत जोऊ चाहे,सिद्धि शांति निर्वान।

इन क्षेत्रनं का कवन विधि भा आगमन महान।
श्रद्धा सहित कहहु मुनि, हो जासों कल्यान।

मुक्ति दायक शिव क्षेत्र सुनहुअब। सादर सबका सुयश भयउ जस।
पर्वत गिरिन कंदरन माहीं।पचास कोटि एकड महि पांही।
जहां-तहां करि परम कल्पना।जग कल्याण हेतु शुचि सपना।
परि ग्रहण अरु ग्रहणहु कारण। तीर्थ पुनीत महा जग तारन।
जो स्नान ध्यान जप जोगू।देंय भक्ति हरि दारिद रोगू।
जो न करेय जप भक्तिहु सुंदर। विविध विकार रहैं ताके उर।
भारत मा करि प्रान विसर्जन।ब्रह्म लोक पा फिरि जन्मयं जन।
वृत्ति पाप में अति दृढ होकर। नाना क्लेश करावति भू पर।
पुण्य क्षेत्र मुनि महा पुनीता।संयम भक्ति मांहि जेहि बीता।
अइसय क्षेत्रन जन करि बासू।जानउ जन्म सफल हों तासूं।
गंगा आदि नदीन तट पावन।स्थित तीरथ रम्य सुहावन।
सरिता सरस्वती अति पावन। कलि मल के सब पाप नसावन।
काशी आदि तीर्थ की शुचिता।सोनभद्र तट मन अति रमता।
स्नान ध्यान को करन ते,पदहु विनायक प्राप्त।
महानदी नर्मदा की, महिमा जीवन व्याप्त।

गोदावरिअरु तमसा रेवा। वसहिं जहां सुर सुंदर देवा।
भद्रा तुंग सुवर्ण मुखी जो। ब्रह्म अच्युत हूं देइ शरण को।
पंपा जन्या परम पुनीता। श्वेत नदी निर्मल नवनीता।
दायक स्वर्ग देवआराधति।परम पुनीत वेद अस भाषेति।
सबके पर्व प्रथकअति उत्तम।शुभ मुहूर्त में अमितमहातम।
सदाचार विद्वान हैं जो नर।तट निवास ते लहंहिंअमित फल।
संचित पापहु राशि नसावहिं।जो जन्मांतर जीव भ्रमावहिं।
पाप मानसिक बॼ लेप सा।कलपांतरहु मिटय न कहूं जा।
जप तप दान तपस्या भारी। होंय भक्ति बल मनुजसुखारी।
पाप वृध्दि के तीनि प्रकारा।बीज वृध्दि अरु भोग अपारा।
जिव ज्ञान गरिमा जब पावे।पापी पाप न ज्ञान बढ़ाओ।
पाप रहित जीवन जन, सदा करंइ जो व्यतीत।
सुख सुंदर सुषमा मई, लहंइ सदा शुचि कीर्ति।

सदाचार सुंदर बदलाओ।धर्म अधरहु भेद सुनाओ।
स्वर्ग नरक की विविध स्वरूपा। ऋषि मो सन अब कहहु अनुनपा।
सदाचार को अमित प्रभाऊ। मोहि बुझाई कहउ मुनिराऊ।
बोले सूत मृदुल शुचि बानी।सावधान हो ऋषि सब ज्ञानी।
सदाचार जन-जीवन माही।चारिउ वर्ण र सवांरति जांहीं।
प्रातः उठ आराधि इष्ट को।धर्म अर्थ उन्नति विशिष्ट को।
प्राची उषा बैठि विलोके।दैनिक कर्म निवृत्तहु होके।
नमस्कार करि जल देवा को।त्रप्त करें सर से पितरन को।
संध्योपासना करय पुनीता जपि गायत्री गायत्री मंत्र सुभीता।
सूर्य देव दे अर्घ सुहागन। भक्ति बछल ले सुंदर पावन।
संध्या करय समय होने पर। मंत्र जाप को सौ नित पढकर।
महामंत्र गायत्री पावन।दिन मा लाख जपे मन भावन।
अर्थ सिद्ध हो या ते जन को।नित आनंद मिले नव मन को।
जीव ब्रह्म को एक करि,करे प्रणव अभ्यास।
सकल सृष्टि यह रूद्र मय, हो मन अस आभास।
ज्ञान कर्म मन बुद्धि लगावे।मोक्ष धर्म अरु भोगहु पावे।
मिलय ब्रह्म पद देवन दुर्लभ। मंत्र जाप को अति प्रभाव बड़।
ब्राम्हण जपे हजार मंत्र को। गायत्री मय सकल तंत्र को।
सो ॐभावना से जपि पावन।परम ब्रम्ह जो है मनभावन।
जीव लहय फल अमित अपारा। मातृ भक्ति का ले आधारा।
जाप करें रवि सम्मुख जाई। जन्मांतर के पाप नसाई।
डेढ़ लाख जप ओमकार का। परम तत्व शिव में उदार का।
मंत्र ग्रहण अवगुण घटे, मिटे महातम घोर।
ब्रह्म ज्ञान अभ्यास करि,हो द्विज ब्रह्म बहोरि।

मनसा पूर्ण गृहस्थन धर्मा।मैं बतलाय दीन सब करमा।
अर्थ धर्म धन धीर विरागा।मोह प्राप्ति के विविधि विभागा।
दिव्य रूप की प्राप्ति अनूपा।तप सुंदर के रम्य स्वरूपा।
निष्काम कर्म शुद्ध मन करयी। तत्पश्चात ज्ञान फल लहई।
सत्य युग तप कर अमित प्रभाऊ। कलयुग धन जन के मन भाऊ।
ध्यान तप अरु भजनहु हूं ते। ज्ञान लहंहिं जन जनम जनम ते।
कालि प्रतिमा पूजन आधारा।ज्ञान मात्र का एक सहारा।
पाप पुण्य फल करमन पावति।अधर्म रुप धरि हिंसा भवति।
धर्म अधर्महुं सुख-दुख जेते।लहति रहंइ जन हरषित होते।
ब्रह्म लोक के मार्ग अनेका।जप तप दान दयालु विवेका।
शोधन पाप महा उपकारी।रैरव नरक नराधम भारी।
देखें सुने दोष दूसर का।राखै गोय गर्व सब जन का।
बंदन सूर्य आत्म कल्याण। ब्रम्ह यज्ञ बहु बिधि कर नाना।
पूजय ब्रह्म ज्ञान गुरु गौरव। सुख सुरभित मन सुंदर सौरव।
सदाचार सुंदर ते जैसे।पावयं विजय कहहु जन कैसे।
धर्म अधर्म विवेचन,मोहि कहहु समझाय।
स्वर्ग नरक के लोक की, सारी कथा सुनाय।
विविध यज्ञ का विवेचन, सादर कहो सुनाय।
ब्रह्म प्राप्त गुरु पूजा, वरनहु सब चित लाय।

द्रव्य युक्त हवन जग माही। अग्नि यज्ञ कहंहिं बुध वा हीं।
अग्नि यज्ञ के कई प्रकारा। संमिधा ब्रह्मचर्य व्रत भारा।
आत्मा रोपण करि अग्नि का। यती करय भोजन कछु नीका।
‌ विवाह समय करिअग्नि साधना। रहय सुरक्षित यहि जस वरना।
वैसे अग्नि अजस्त्र कहावे।संध्या आहुति द्रव्य बढ़ावे।
प्रातः काल अग्नि की आहुति।आयु बढ़ावति जन मन भावति।
दिन में इंद्रादिकहु सुरन को। आहुति देव यज्ञ अर्पण को।
ब्राम्हण देव त्रप्ति हित, एक एक करि यज्ञ।
शेष समय अध्ययन करें जानहु महा गुणज्ञ।

आगे प्रत्येक दिन का अपना महत्व है उसका वर्णन है।
बिप्र सुनेहुआदर्श अनूपा। उपकारहु का नवल स्वरूपा।
सब लोगन उपकार करने हित।जन जन का उद्धार करन हित।
आदित्य वार शिव का प्रियवारा। शेष गुणन सों रचि महि डारा।
हर दिन का कुल करि निर्धारित। सुरन दीन्ह सस्नेह उमापति।
संपति आरोग्य भोग अरु हानी।आयु मृत्यु सब कुछ सनमानी।
सुरन केरि उनके दिन पूजा।प्रीत पूर्वक कल्पित की जा।
प्रीत भक्ति पावन फल निर्भर।अति उदार शिव सर्व कला धर।
पांच प्रकार केरि शुचि पूजा।मंत्र होम तप दान तनुजा।
नाना भाति रोग दुख नासें।जो आदित्य स्वरूप उपासे।
प्रारब्ध प्रबल खलगण विनिष्ट हों। जाके प्रिय निज परम इष्ट हों।
पाप शांति हित दिन रविवारा।पूजा उत्तम विविध प्रकारा।
जप ते इष्ट परम आराधहिं। भक्ति विविध की महिमा साधंहिं।
श्री हित सोमवार अति सुंदर।रोग शांति हित दिन भौमावर।
देवी पूजा और साधना। ब्रह्म भोज का सुंदर सपना।
बुधहिं पूजि विष्णु मुरारी।पुत्र मित्र स्त्री तप भारी।
दिन बृहस्पति आयु बढ़ावे।ब्राह्मण गौ अति प्रेम जेवांवे।
पूजन विप्र विविधि हितकारी। वेद शास्त्र सम्मत अस भारी।
इच्छुक भोगहु भोगन हेतू। सुर ब्राम्हण पूजन सुख केतू।
शनिवार शिव पूजि भली विधि।होम दान भोजन तिल ते सिधि।
दिन अनुसार सुरन्ह आराधहि। श्रद्धा सहित नियम सब साधहि।
धना भाव हो पूजि सुरन्ह को।धन श्रद्धां करि अर्पित मन को।
समय समय पा ज्ञान अलौकिक।चैतन्य करें जग सारे दिक।
देवो पासना सब कुछ,भक्त लहंहिं जग माहिं।
मंत्र तंत्र आराधहिं,इच्छित फल जग पाहिं।
देश काल अरु पूजा, देव कहहु समझाय।
यज्ञादि कर्म में शुभ ग्रह,देंयअमित फल आय।
गौ निवास दस गुना पुनीता। जल तट अति प्रिय पावन नीका।
तुलसी पीपल जड़ देवालय।तीर्थ नदी तट सत गंगालय।
इनहूं ते तट सिंधु महातम।पूजन गिरी चोटी अति उत्तम।
सतयुग यज्ञ दान करि पावन।फल पावंहिं सब जन मन भावन।
द्वापर त्रेता अरु कलयुग हूं।घटय परम फल शनै शनै हूं।
शुद्ध चित्र अरु हृदय पुनीता।देय परम फल प्रिय नवनीता।
रवि संक्रांति वहू ते उत्तम।मेष राशि अति वड तीरथ सम।
सूर्य चंद्र के ग्रहण परन पर। फल जग जाय महान धरा पर।
उत्तम पर्व काल यह भाई। जीवन मानव सफल बनाई।
जप तप अरु सत्संग प्रभाऊ। वरनै वह जो शुचि मतिराऊ।
ज्ञान निष्ठ और तपस्वी,योगी यती अपार।
इनकी पूजा करि तरे,जीव पाप संसार।
सबसे अधिक हुआं फल,जहां होय मन लीन।
भक्त प्रेम गदगद गिरा,भक्ति पयोध नवीन।

चौबीस लाख मंत्र गायत्री।जब भी वह ध्वज श्रेष्ठ तपस्वी।
जो समस्त योग फल दाता। तप बल ज्ञान लिए परितापा।
महातम्य यहि मंत्र विशेषा।पाप नाशि हों मिटय कलेशा।
गायत्री महिमा अरु नामा।पूण्य सकल के व्यापहिं धामा।
याचक पात्र दान में मति हो।गायत्री में जाकी गति हो।
साधक वहे इष्ट भगवाना।दर्शन ते फल जिनके नाना।
उत्तम जन्म भोग सब मिलयी। ईश्वर बुद्धि ह्दय जब बसयी।
मोक्ष महान गोय जो जानय।तप अरु यज्ञ ह्दय निज सानय।
धर्म बुद्धि पा सिद्धि अनूपा। ब्रह्म रूप मा रम्य स्वरूपा।
शिव भक्तन को दान दे,मिलय राम्य कैलाश।
उपदेशहु हित दान का,दिव्य नवल सुप्रकाश।
पार्थिव पूजन की विधि,देव मुनीष बताय।
ऋषि बोले हे सूत जी,सादर कहहु सुनाय।

अभीष्ट सिद्धि पूजन कर आवे।विनय करूं मुनि मोहि सुनाओ।
माटी की मूर्ति की पूजा सन।लहंहि मनोरथ मंगल हो जन।
नदी तालाब कुआं या जल की।द्रव्य सुगंध युक्त भूतल की।
शोधन करें जयिस मन भावे। प्रतिमा का प्रिय रूप बनावे।
पदमासन बैठि पूजि शुचि प्रतिमा।विष्णु गणेश सूर्य शिव महिमा।
षोडसोपचार युक्त पूजन ते।सिद्धि मनोरथ हों सब जन के।
नैवेद्यहु का प्रचुर प्रभाऊ। अर्पण पूजन शिव मन भाऊ।
पूजा लिंग महान पुरारी।हों प्रसन्न जाते त्रिपुरारी।
आत्म शुद्धि हो आयु बढ़ावे।धूप दीप ते धन चलिआवे।
धूप दीप तांबूल ते,मिलय ज्ञान अरु भोग।
नमस्कार जप आदि का,शुचि महान हो योग।

भोग मोक्ष का क्षेत्र अपारा। मानस पूजा के अनुसारा।
श्रद्धा पूर्वक सुनहु मुनीशा।उत्तम रीति प्रभाव विशेषा।
भूलोक सिद्धि हित पूजि गजानन। दे सद्बुद्धि मनोहर आनंन।
मोक्ष महा तक पहुंचे प्रानी।शिवस्वरूप जब प्रभुता जानी।
अउरहु सूरन पूजि दिन उनके।धन्य जन्म दुख मिटहिं जन्म के।
शिव पूजन का अमित प्रभाऊ।युग बीते नहिं कोउ कहि पाऊ।
आद्रा नक्षत्र चतुर्दशी उत्तम। सिद्ध आयु दे भेटि महातम।
औरहु अइस नक्षत्रहु नाना।शिव पूजा का मर्म व खाना।
कार्तिक मास महा सुखदाई।पूजहिं बुध सब सुर मन लाई।
यम अरु नियम दान तप होमा।जप अरु यज्ञ महासुख भूमा।
कार्तिक रवी रम्य की पूजा।दूरि रोग हों सब शरीर जा।
नाना विधान शिव पूज्य परम के।ताप श्राप सब जांहिं जनम के।
स्वसायुज्य दे मुक्ति शिव,योग्य भक्त को पाय।
योग लिंग निज रूप में,महादेव हरषाय।
अखिल जगत के जो अखिलेश्वर।पारब्रह्म शुचि महा महेश्वर।
बिंदु नाद है जगआधारा। देवी शिवकर रूप उदारा।
मात-पिता की पावन पूजा। परमानंद स्वरूप न दूजा।
प्रकृति पुरुष जन्म के कारण। मिले शरीर व्यक्त हो यह तन।
जन्मति पुरुष जन्म मरण को।माया जीर्ण स्वरूप करन को।
होत जन्म व्यापहि बहु माया। जीव अर्थ यह बुध जन काया।
फांसी बंधा जीव बहु भांती।भक्ति न हरि की कथा सुहाती।
मुक्ति हेतु जब शिव आराधहि। पूजा जप तप पावन साधहि।
भव भय भोग भाव की भाषा। प्रकृति मुख्य शिवअनुपम आशा।
दाता भाग न कोई दूसर। एक अनुप महा गंगाधर।
जन चाहो जो जन्म कछु,शिव स्वरूप आराधि।
जन्म करो कृत कृत्य इत,भक्ति मनोरम साधि।
पंचाक्षर का महातम,पूजा रम्य विधान।
मुनिवर कहहु कृपालु अति,सादर वाहि बखान।
प्रणव प्रकृति पावन उत्पन्ना।पंडित जासु रूप अस वरना।
तुम सों कछु प्रपंच अब नाही।प्रणव अर्थ सुंदर जग माही।
मोक्ष मिले जप करन मात्र ते।माया रहित नवीन ध्यान ते।
स्थूल सूक्ष्म रूप दुइ ईके।बुध विशिष्ट जानहिं अति नीके।
एकांतवास करि पावहिं भोगू।कोटीन जाप मिलय शुचि योगू।
अकार उकार मकार मनोरम।बिंदु नाद जाके अंतरतम।
शब्द काल अरु कला युक्त हो।अ उ म से प्रणव युक्त हो।
करि निवास ह्दय योगिन के।ध्यानहु में नहि जो भोगिन के।
यह शिव शक्ति और समरसता।सत्य स्वरूपम लिए अमरता।
प्रणव जपे सब पाप नसाहीं।निवृत्ति लहन के पंथ लखाहीं।
संध्या जपि के ॐअनूपा।महामंत्र शुचि मृदुल स्वरूपा।
नौ करोड़ जपि मंत्र को,पुरुष शुद्ध मय होय।
बहुरि जाप इतना करें,कलि मल सारे धोय।

नित्य सहस्त्र मंत्र फलदायक। प्रबुद्ध शुद्ध हों योग सहायक।
जितेंद्रिय जपि साहस पांचको। प्राप्त करें शिव सत्यलोक को।
उत्तम सरिता वृषभअरु, मंडप राज बिलोकि।
लखि नंन्दी स्थान को,मिटहिं सदा को शोक।

नंदी स्थान महान अनूपा।भक्तन हित शुचि पावन रूपा।
भक्त उपासक अद्भुत जो जग। ग्रहण करंइ अतुल परम पद।
आगे वहि के लोग अनंता।कहहिं बेद अरु पावन संता।
गुरु सों प्राप्त मंत्र पंचाक्षर‌।पांच लाख का जाप करय नर।
मुक्त होय सब कटें कलेशा।हों प्रसन्न प्रिय महा महेशा।
अति उत्तम यह मंत्र पुनीता।शिव स्वरूप धारण ते होता।
जो मनते शिव को आराधहिं।नाना भांति भक्ति पथ साधहिं।
प्रीत निरंतर शिव पद बाढ़य।भक्तिहिं मथि शुचिअमिय निकारय।
नारि पूजि शिव लिंग अनूपा।देवि दया मय पावन रूपा।
बुधहुं लहंहिंआनंद अपरमित।आराधन ते शिव शंकर नित।
शिव स्वरूप जन पावहिं नीके। करहिं प्रयासहु सकल अवनि के।
पढन मात्र अध्याय के, शिव आशिष को पाए।
जन्म धन्य मानव करें, अनुपम कथा सुनाएं।

बंधन मोक्ष विश्लेषण, सुनहु मुनीश महान।
आठ प्रकृति के रुप यह,आत्म जीव समान।

बंधन आठ प्रकृति के जाए।संज्ञा जीव मुक्ति शुचि भाये।
प्रकृती आगे बुध्दि दव्वार है।पंच तनमात्रा मयी सार है।
गुणात्मक अहंकार फिरि नाना। प्रकृति प्रचंडहु रूप वखाना।
देह क्रिया करि बुध्दि उपायी।पावय कर्म मनुज सुखदाई।
कर्म से देह देह ते कर्मा।बारंबार मिले सब धर्मा।
कारण सूक्ष्म स्थूल शरीरा।व्यापार बड़े सबके गंभीरा।
कर्म अनुसार तासु फल मिलेई। दुख सुख पूर्ण पाप जेहि कहहीं
जीव कर्म में बंधि यहि काला।तीनि शरीर विभक्त विशाला।
भ्रमय सदा न शांति सुख लहही।चक्र करता की पूजा करयी।
आठ चक्र है आठ प्रकृति के ।चक्र करता जो मंगल मति के।
शिव सर्वज्ञ महा परिपूरण।निस्प्रह और अनन्त महाधन।
जानहिं वेदहु शक्ति अनंता। पूजि महेश लेहु शुचि संता।
प्रकृति पर्यंत कर्म हों बश में। आत्माराम जीव के यश में।
करहिं बास शिवलोक पुनीता।बुद्ध किये बश मंगल जी का।
शिव मानस ऐश्वर्य यंत्र बिन। मिलय कहां जीव को नरतन।
ध्यान ज्ञान नामदिअनूपा। शिव सुंदर के रम्य स्वरूपा।
करि अभ्यास निरंतर ही जन। भक्ति कर्म ले आत्मज्ञान कन।
लिंगादिशिव पूजा, कहहु विधान मुनीश।
आराधन की विधि कहो, होयं प्रसन्न गिरीश।
लिंगादि की पूजा सुनहू।प्रणव रूप की व्याख्या करहूं।
सब कामना पूर्ण हो जाते। स्थूल सूक्ष्म पंचाक्षर ध्याते।
पूजा परम मोक्ष के रूपा।प्रकृति बनाये लिंग अनूपा।
जो शिव जानंय अन्य कोई।धरा विकास पांच हैं गोयी।
स्वयंभू बिंदु प्रतिष्ठित लिंगा। पद गुरु पावन मानहु गंगा।
पूजन ते बाढै शुचि ज्ञाना।प्रणव मंत्र का करि अवहाना।
बिंदु नाद में लिंग स्थावर।जंगम रूप महान कलाधर।
विधिवत लिंग करय स्थापित।पूजा मात्र मनन शिव के हित।
अउरव पूजन करे उपाई। निवृत भए मन को सुख दाई।
विभूति क्यार उत्तम स्थाना।सुख आनंद शांति जित नाना।
स्त्री-पुरुष भस्म करि धारण। शिव पूजा निज दुख निवारण।
मंत्र भस्म कर अमित प्रभाऊ।शिव पारायण रम्य स्वभाऊ।
गुरु सों जानि भस्म की महिमा। पूजा मंत्र ज्ञान की गरिमा।
राजस तामस गुण बिनाश कर।शिव का बोध महान महा कर।
ज्ञानी गुरु सर्वदा पुनीता।मंत्र पुंज साधकहु सुभीता।
आत्मा सों गुरु की बड़ि महिमा। दाता ज्ञान गोय की गरिमा
समरथ गुरु अज्ञान हटावे।ताप शापअरु पाप नसावे।
विघ्न विनाश गणेश उपासहिं। पूजा केर रूप सब साधहिं।
दैहिक दैविक भौतिक सारे।दोष सदैव रहें मन मारे।
जप अरु हवन दान सब नियमा। सिद्धि हेतु तिल दानहिं प्रतिमा।
घृत अरु ब्राम्हण भोज पुनीता। गौ भोजन हित भक्तहु जीता।
भूत पूजि भैरव महा,करि शिव का अभिषेक।
शांति यज्ञ अनुष्ठान ते, फूलय फलय विवेक।
धना भाव में और उपाई। सादर सुनहु भक्त चित लाई।
स्नान ध्यान जप मंत्र अनूपा। नमस्कार रवि रम्य स्वरूपा।
हो प्रसन्न सब सुर आशीषहिं।तेज प्रकाश चहूं दिशि सरसहि।
शिव भक्ति के विविधि प्रकारा।निर्गुण सगुण श्रेष्ठ आधारा।
शिव स्वरूप को कौन बखानय।होय भक्तिमय वह सब जानय।
तन-मन अर्पण सब हरिहर को। आराधहु कैलाश पति को।
प्रणव प्रदक्षिणा पावन सब बिधि। माया लावें संग सभी सिद्धि।
यह शिव की बलि पीठ अनंता। अर्पण नमस्कार संता।
जन्म मरण व्यापहिं नहिं तेई।गति शिव के स्वरूप मां जेई।
क्रिया बुध्दि का पावन संगम।सकल चराचर जीव विहंगम।
स्थूल सूक्ष्म पर जब जय पावे।बुध अस कहहिं मुक्ति नर पावे।
माया चक्र अपार अनंता। शिव आधीन कहहिं सब संता।
कारण द्वंद निवारण पावन। आशुतोष आनंद सुहावन।
पूजा षोडशोपचारहु पावन।देंय महा फल जन मन भावन।
भू पर पाप न अइसव जाया। जो प्रदक्षिणा ते न नसाया।
यथाशक्ति गोदान करि,शिव सुंदरहिं उपासि।
ज्ञान सिंधु जन मन लहहिं, भक्ति रूप सुखराशि।
चिरंजीव हो सूत जी, ऋषि बोले हरषाय।
महिमा जो शिवलिंग की,सब अब कहउ सुनाय।

शिव के परम भक्त तुम पावन। रूप सुखद सुंदर मनभावन।
महिमा व्यास सुनाइन जैसे।मुनिवर कहहु ऋषिन ते वैसे।
समस्त ऋषि हो प्रसन्न अति।भक्ति भावना ले अनुपम मति।
पार्थिव लिंग श्रेष्ठ सब लिंगन।सिद्ध मनोरथ देंय अमित फल।
ब्रह्मा विष्णु और सुर सारे। पूजि लिंग भे महा सुखारे।
गंधर्व यक्ष जन जागती नाना।असुर अधम भे सिद्ध समाना।
रत्न सुवर्ण और यह पारा।कलयुग पार्थिव लिंगाधारा।
पार्थिव मूर्ति अनन्य उपासक।लहंहिअमित फल पावन साधक।
सरितन माहिं श्रेष्ठ जिमी गंगा।लिंगन में तस पार्थिव लिंगा।
सब मंत्रनओमकार महाना।पार्थिव लिंग श्रेष्ठ जग जाना।
वर्णन में ब्राह्मण सम को है। और पुरिन में काशी सोहै।
ब्रतन माहि शिवरात्रि महाना। शक्तिन माहि परा बलवाना।
लिंगन में तस पार्थिव लिंगा। पूजा ध्यान अउर तप गंगा।
पुष्टि तुष्टि धन आयु बढ़ावे।साधक लक्ष्मी बहु विधि पावे।
धनवान होइ पा रुद्र लोक को। लहय न सपनेहु मांहि शोक को।
लौटे जब शिवलोक ते,चक्रवती नृप होय।
गुप्त भेद पावन महा, जाने भक्ति न कोय।

निष्काम भाव ते पूजि लिंग को।लहय मुक्ति के महातम्य को।
ब्राम्हण होय जो लिंग न पूजे। दारुण शूल नरक मंह जूझे।
लिंग रूप के कई प्रकारा।रत्न सुवर्ण स्फटिक सारा।
पार्थिव पुष्प लिंग अति पावन।सुर संतन के मन अति भावन।
रम्य रचे शुचि लिंग को, भक्ति रूप आधार ।
आराधहि शिव रूप को, पावन भक्त उदार।

वैदिक भक्तन की पार्थिव पूजा। ब्रम्ह यज्ञ सुंदर शिव की जा।
होइ निवृत नित्य कर्म ते।ग्रहण करय रुद्राक्ष धर्म ते।
पार्थिव लिंग पूजि बहू भांती।सुमिरि सदाशिव प्रिय सुख राशी।
तट सरिता पर्वत पर पावन।वन पवित्र अरु देश सुहावन।
पार्थिव पूजन रम्य शिवालय। देश पवित्र केरि माटी लय।
लिंग पूजि मन दृढ़ विश्वासा।मृतिका जलसन लिंग प्रकाशा।
वेद मार्ग से करि स्थापित।पार्थिव लिंग केरि रचना रचि।
नमः शिवाय मंत्र अति पावन। महादेव सुंदर मनभावन।
भूःरपि मंत्र सिद्ध फलदायक।आयोहमान शंभु कर सायक।
मिटे पाप सब जन्म जन्म के। नमः रुद्र के मात्र जपन ते।
नमः संभवाय मंत्र को पढ़िके।पंचामृत प्रिय प्रोक्षण करिके।
नमो नीलग्रीवाय अनंता।एत रुद्राय जपंय सब संता।
या सो रूद्र महान महातम। पाप पुण्य के मिटयं महा तम।
अपोयादित अति मंत्र पुनीता। और असौजी सुख की सरिता।
असौयो अब अर्पित प्रिय मन को।नमः नीलग्रीवाय भुवन को।
पद्मासन पढि त्रंबक मंत्रा।गायत्री प्रिय अति सब संता।
शिव पूजन के विविध प्रकारा।बहे भक्ति ले सुरसरि धारा।
सत्य लगन प्रेम प्रिय मन का।हो कल्याण सदा शुचि जन का।
मन कामना पूर्ण हो सारी। नमः शिवाय मंत्र जपिभारी।
गुरु का दीन्ह मंत्र पंचाक्षर।विधि पूर्वक जपय जो शुचि नर।
अक्षत पुष्प हाथ गहि भारी‌।उदित जाप पावन गुणकारी।
हे भद्रे सब जाननि हारा।कृपासिंधु मैं दास तुम्हारा।
परम कृपालु मुदित अब होओ।अज्ञानी के पातक धोओ।
मैं पापी प्रभु परम पुनीता। देवदंड जस लागय नीका।
आरोग्य आयु यश स्वर्ग,सहज मिले आख्यान ते।
पुत्र पौत्र संसृति सकल,सहज सुलभ जपध्यान ते।
अर्चन पार्थिव लिंग पुनीता। सुनउ सुभाय हृदय अति नीका।
पार्थिव लिंगन की शुभ गणना।कहहु बुझाय सुरन जस वरना।
मुनि बोले प्रिय वचन उचारी।भक्त ह्रदय की भाव उघारी।
कामनानुसार लिंग की संख्या।आराधहिं जेहि भक्त महाध्या।
पार्थिव शिव सहस्त्र करि पूजन। विद्यारंभ करति पावन जन।
पुत्र धन अरु वस्त्र चाह ले।मोक्ष दया लालसा ह्रदय ले।
तीर्थ कामना अति प्रिय जेही।पूजय लिंग विविध विधि वोही।
जाकी जइससि भावना भाई। पूजय महादेव सुखदाई।
वेदोक्ति विविधि संख्या निर्धारित।कोटि यज्ञ फल और धारा कित।
भक्ति मुक्ति हूं पावहिं कामी।पूजि लिंग हों सुर पथ गामी।
बिना लिंग पूजा किये,परहिं जाय नर पाप।
शांति लहहिं नहिं स्वप्न में,मानहु है यह शाप।

दान विविधि व्रत नियम अपारा। पूजा लिंग महा विस्तारा।
यज्ञ तीर्थ से बढ़ फल भाई।पूजा लिंग जासु मन भाई। कलयुग में प्रभाव अति यहिका।महा श्रेष्ठ अरु उत्तम नीका।
भक्ति मुक्ति पावन फल दाता।शिवमयलिंग श्रेष्ठ सुख दाता।
जासु महर्षि करयं बड़ि पूजा।ध्यान महा शिव अन्य न दूजा।
अंगुल चारि लिंग बेदी के‌।लागय अनुरूप भक्ति अरु धीके।
आराधन सम फल नहिं दूसर।कहंहि शास्त्र अरु पावन भूसुर।
बुधन केरि पूजा बड़ि येही।स्थावर जंगम शांति सनेही।
मोक्ष हेतु पद अउर न दूसर।जैसे शुभ पावन करुणाकर।
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य सुजाना।और नारि जो जगती नाना।
वैदिक मार्ग कहहिंअति पावन। अन्य कहां जग पाप न सावन।
गौतम दधीच सब पाप मुक्त हो।महा दिव्य सब कर्म अर्थ हो।
आदर करें वेद श्रुति,अरु आचरण पुनीत।
जगन्मयी अष्टमूर्ति को,पूजय करि परतीत।

पृथ्वी जल अग्नि पावन रूपा।सूर्य चंद्र आकाश अनूपा।
रवि भव रूद्र अग्नि अरु भीमा। महादेव पशुपति की महिमा।
ईश्वर मूर्ति मंजू मन पूजै। भक्ति मंत्र कानन मंह गूंजैं।
देव कर्म हित देशि बड़ि उत्तर।निशा नील आराधहिं मन नर।
बेलपत्र रुद्राक्षहु माला। बिना भस्म पूजहि न कृपाला।
भस्म बिना मृतिका ते, त्रिपुंड ललाट लगाए।
जन्म कृतार्थ जन करें,ज्ञानी ऋषि हरषाए।
अग्राह्य ग्रहण के योग्य नहि,शिव नैवेद्य पुनीत।
बेलपत्र का निर्णय सादर, कहहु विनीत।

महा धन्य मुनि तुम सम को है।जाके हृदय भक्ति शिव सोहै।
सावधान सब सुनहु मुनीषा। सत्यवती सुत भक्त गिरीशा।
नैवेद्यहु ग्रहण जो करही।देखति वाहि पाप सब जरहीं।
नैवेद्य पान कर बड़ा प्रभाऊ।शिव सायुज्य पाय राऊ।
चर्चा शिव नैवेद्य करन ते।ग्रह पुनीत हो ध्यान वरना ते।
नैवेद्य पाइ बाढै शिव प्रीती।मिटय विलंब पाप परतीती।
परय नरक जो इसे दूरावे।पापी अधम महान कहावे।
दीक्षित शिव इच्छा से योगी।शिव नैवेद्य पान बड भोगी।
पाप शाप सब मिटहिं सदा के।दूर महा तम हों विपदा के।
रम्य समाज भक्त उपकारी। भक्ति भावना जित सुखकारी।
चांडालहु शूद्र जहां बड़ा पापी।भक्ति भावना तहां न व्यापी।
लौह वर्ण सिध्दि लिंग पुरारी। स्वयंभू चेतन हितकारी।
द्रव्य ग्राह्य हैं लिंग के ऊपर। स्पर्श हिन पवित्र बड भूपर।
बिल्व पत्र महा शुचि भारी।शिव स्वरूप पावन सुख कारी।
सुरन कीन्ह बडि स्तुति पूजा। महिमा जान सके किमि दूजा।
पवित्र तीर्थ जो जगती नाना।विल्व मूल मंह आदि प्रधाना।
विल्व मूल अनन्य शिव बासा।महादेव का महा प्रकाश।
मात्र चढ़ावन ते शुचि जलको।परम पवित्र कहंहिं बुध जन को।
गंध पुष्पादि विल्व की पूजा। भक्त करहिं तजि अन्य न दूजा।
होहिं सुखी भोगयं शुचि धरनी।पूजा विल्व महा सुख करनी।
विल्व मूल का पूर्ण महातम। शिव भगवानहु के अंतरतम।
प्रवृत्ति निवृत्ति हित पावन,विल्व रूप अनुरूप।
दुख दरिद नाशैं सभी,जनहु पूजि हों भूप।

नमस्कार कर ऋषिन को।मुनि बोले हरषाय।
भस्म और रुद्राक्ष की,महिमा देव सुनाए।

जेहि सुनि ममचित हो अति हर्षित। अति उत्तम प्रसंग बहु चर्चित।
धन्य मनुज जे शिव आराधति। तप बल पूर्ण योग जप साधति।
परम देवता शिव जिन केरे।जन वे धन्य महा प्रिय मेरे।
सुफल जन्म वह मानव करहीं।शिवपद पूजि परम पद लहहीं।
सुमिरि सुमिरि शिव हो वड पावन।गदगद गिरा भक्ति मन भावन।
रूद्राक्ष विभूति अउर शिव नामा। पूर्ण महा संगम शुचि धाम।
तिन धारण शरीर जो करयी। दर्शन मात्र पाप सब् जरयीं।
अंग रुद्राक्ष विभूति न जाके। गिरा रूप मंह शिव कंह वाके।
अधम जानि जन त्यागहु ऐसे।कपटी कुटिल तजंय जन जैसे।
शिव विभूति रुद्राक्षहु महिमा। नाशक पाप लिए नव गरिमा।
धारण जो इन तीनिउ करयी।लोकि वाहि फल बेंडी लहहीं।
तीनोंउ का स्वभाव जग सुंदर।सम स्वरूप आराधहिं हरिहर।
पंडित धारण करति विभूती।सुर साधना नवल ले प्रीती।
जाहि बिलोकि पाप सब नासति।सत अरुअसत महेश प्रकाशति।
महातम्य जो जानि न जाई।सुंदर शिव स्वरूप सुखदाई।
मूलक पाप दुख सब नाशहिं।वेद पुराण अइस मत भाषहिं।
पुण्यात्मा बुध वैदिक वेही।जपत जाप शिव परम सनेही।
जिनहिं नाम जप तप विश्वासा। निशि दिन जप करि करत प्रकाशा।
पातक नष्ट जासु जग होंहीं।मोक्ष महान भक्ति पथ सोंहीं।
अमृत पान नाम बड़ि महिमा। भक्ति अखंडित मन मंह गरिमा।
संपूर्ण पाप क्षय जनम जनम के।ध्यान धरति शंकर चरनन के।
पूर्व काल में इंद्रद्युम्न,पापी राजा एक।
शिव चरनन को ध्याय के,लही परम गति नेक।

यह महिमा शिव भस्म की,करे पाप को भस्म।
द्वजि पावन बड र्श्रेष्ठ तुम,अविनाशी शिव अंश।

और अनेकहु भस्म प्रकारा। स्रोत स्मार्त भाल द्विज धारा।
मंत्र पढ़े विन धारण करयी।बुध अग्नेय त्रिपुंडहु कहंयी।
अग्निहोत्र हो जो उत्पन्ना।वा प्रभाव जग जाय न वरना।
वर्णाश्रमी आलस्य रहित हो।भस्म अरु धूलन में प्रिय मति हो।
तिरछा त्रिपुंड करे जो धारण।हो बाके सब दुख निवारण।
उमा लक्ष्मी और भारती। अति प्रसन्न जग कीर्ति जापती।
चारिउ वर्ण और अपभ्रंशा। भस्म रूद्र धूलन शुचि मनसा।
श्रद्धा सहित जो करय न धारण। पापी वहै पाप का कारण।
सौ करोड़ कल्प जग भ्रमयी। ज्ञान भक्ति कछु प्राप्त न करयी।
कर्म क्रिया से फल विपरीता। जिन मन द्वैष भस्म से होता।
ज्ञानी आत्म शिवाग्नि से, सायुषेति पढि मंत्र।
धारण भस्म पुनीत का, कहंहिं कहां सुख अन्य।

छूंटय पाप भक्ति उर बसयी।आनंदित जो शिव मा रहंयी।
भस्म स्नान बिना षडाक्षर।बिन त्रिपुंड जप करें न शुचि नर।
निर्दयी अधम और बड़ पापी।वध का पात्र पतित हो शापी।
शिव विभूति जिनके मन बसहीं। तीरथ यज्ञ कोटि उत लसहीं।
भस्म धारण लिंग पूजा, षडाक्षर का जाप।
महातम्य पावन अमित,पारहोति निष्पाप।

ब्रह्मा विष्णु रुद्र मुनि सारे।सकहिं प्रभाउ न बरनि सुखारे।
भस्म धारी को जनि उपहासहु।शिवमंगल स्वरूप मन राखहु।
मान शतो मंत्र बड पावन। मंत्रित मंत्रहु भस्म सुहावन।
ब्राम्हण क्षत्रिय भक्ति वान नर।मानशतो ते भस्म लेप उर।
त्रंबक पंचाक्षर बड़ पावन।वैश्य शूद्र विधवा मन भावन।
अघोर मंत्र जपि के बनवासी। धारण मंत्र करति सुख राशी।
यती प्रणव जपि गहंहि त्रिपुंडा।वर्णाश्र्मिन शिवा ॐ गंगा।
शिव योगी जो पूज्य सुरन के।धरति भस्म ईशान जपन ते।
कवनव वर्ण भस्म ना त्यागहि।मत शिव का पावन अस भाषहि।
भस्म धारी का बड़ा प्रभाऊ।हूं मत मंद कवन बिधि गांऊ।
पातक जरंय सकल जो जाए। आंगन भस्म पुनीत लगाए।
हत्या जग जो विविध प्रकारा।मिटति क्षणहु भस्म शुचि द्वारा।
बंश सहस्त्रहु आदि अंत के ।तरति त्रिपुंडहु मात्र धरन ते।
सब उपनिषद अइस मत भाषंय। श्रेष्ठ त्रिपुंड वान नर की जय।
भस्म स्नान मिले फल सारे।सुरसरि सम बड श्रैष्ठ सुखारे।
भस्म साक्षात रूप शिव मंजुल।महा त्रिलोंकी का पावन कुल।
नहीं स्नान भस्म सन दूसरि। ध्यान दान जप तप इस भूपर।
धारण नित्य त्रिपुंड सुहावन। भुक्ति मुक्ति दें शिव सुख पावन।
बिन त्रिपुंड रुद्राक्ष ग्रहण ते।व्यर्थ जन्म तप जाप करन ते।
रेखा तीनि त्रिपुंडहु कैसे। सत रज तम की मूरति जैसे।
भक्ति मुक्ति दुर्लभ फल दायक। महा त्रिपुंड विपत्ति सहायक।
भौं के मथ्य अंत तक,उत्तम महा प्रमाण।
मध्यमा अनामिका प्रतिलोम ते,करय रम्य निर्माण।

सुनहु श्रेष्ठ शौनक मुनि, सूत कहीं हरषाय।
रूद्राक्ष परम पावन प्रिय, महादेव मन भाय।

दर्शन स्पर्श अरु जपन मात्र ते।जरंय पाप जब भक्ति साथ दे।
पूर्व काल रुद्राक्ष प्रभावा। शिव जो कहा देवि मन भावा।
बरस सहस्त्रन तप पश्चाता। मन संतुष्ट न कछु कहूं भाता।
नेत्र बंद लीला वत करिके।तप का पूर्ण ध्यान फिरि धरिके।
नेत्र पुटिन जल सों मल के कन।गिरे मही रुद्राक्ष बीज बन।
यत्र तत्र रुद्राक्ष पुनीता।विटप सुहावन में सुर समता।
विष्णु भक्त चारिउ वर्णन का।दिन्ह हरषि स्थावर सबका।
शिव पियारि रुद्राक्ष विभूती।नाशक पाप भक्त परतीती।
जैसइ वर्ण धरा पर जाए। भांति वहै रुद्राक्ष सुहाये।
पीले लाल अउर कजरारे।वर्ण अनूप रहंहि जन धारे।
मुक्ति भुक्ति दे जन आनंदा।भक्ति बछल मन परमानंदा।
शिव अरु उमा प्रसन्न परम हों।सुफल भक्त के जनम जनम हों।
उत्तम मध्यम अधम भवानी।रूप तीनि जग इनके जानी।
सुख सौभाग्य वेर सन देंवे।अरिष्ट नाशि अमला सन होवे।
गुंजा फल समान जग जाया।स्वार्थ सिद्धि बन प्रिय जग आया।
प्राप्ति सिद्धि की करि बहु भांती।फल संतति यह जिनहिं सुहाती।
छिद्रवान रुद्राक्ष पुनीता।उत्तम महा धरनि दुख जीता।
ग्यारह सौ रुद्राक्ष ग्रहण कर।साक्षात नर हो सम हरिहर।
अकथनीय फल पावन पावे।वेद शास्त्र जो वरनि न जावे।
भक्त महां पुरुषन मंह उत्तम।साढे सात सहस्त्र ग्रहण तम।
यज्ञोपवीत रूद्राक्ष ग्रहण करि।तीनि सौ साठि लड़ी का शुचि धरि।
तत्पर भक्ति रहंहिं नर सुंदर। शिवा का न रुद्राक्ष ग्रहण कर।
एक सौ एक कंठ मह माला। शिव समान वह दीन दयाला।
साक्षात शिव रूप अनूपा।भक्तन मांहि लसै होइ भूपा।
मणीबंध यज्ञोपवीत ते।विनवहिं सुर वहि बड़ी प्रीति से।
सुनहु उमा रुद्राक्ष महातम। अति उत्तम जानहु यह मो सम।
त्रिपुंड भस्म रुद्राक्षहु धारी।जाइ न हों यमलोक दुखारी।
जो धारण इन करे न कब हूं।जाइ बसे यम लोक सदा हूं।
सुनहु उमा अति मोहि पियारा। पापी तीनिहु इन जो धारा।
कोटि पुण्य रूद्राक्ष जपन ते।दस कोटि गुना उत्तम धारन ते।
त्रिपुंड साथ रुद्राक्ष विराजै।मृत्युंजय जप उतने साधै।
जन दुर्लभ वह पुण्य सुरन को।साक्षात शिव लोक करन को।
पांच सुरन सब देवन अति प्रिय।जन रुद्राक्ष मंत्र जाके हिय।
विष्णु भक्त धारण करि इनका।पावहिं सब वांछित फल मन का।
अउरउ बहुत भेद इन केरे।जानंइ जो शिव भक्त घनेरे।
एक मुखी रुद्राक्ष अनुपा।भक्ति मुक्ति शिवरूप स्वरूपा।
ब्रह्म हत्यादि निवारक पापा।सिद्ध कामना हों जेहि व्यापा। 
दो मुख गौ हत्यादि निवारक। तीन मुखी धारति सब साधक।
चारि मुखी जानहु विधि रूपा।चतुर्वर्ग फल दाता भूपा।
कुल चौदह मुख के अति पावन।महादेव सुंदर मनभावन।
महातम्य में विविध प्रकारा।फलदायक कलि के संसारा।
चौदह मंत्र सिद्धि के दायक।जिन सबके रुद्राक्ष सहायक।
बिना मंत्र रुद्राक्ष न धारय।आशुतोष कर रूप सवांरय।
भूत पिशाच डाकिनी द्रोही।डरपति लखि जेहि तन यह सोही।
उमा रमा पति सूर्य देवता। हों प्रसन्न गणपतिहु पुनीता।
रुद्राक्ष परम मंगलहु स्वरूपा।भस्म महातम के अनुरूपा।
नित्य महातम सुनन ते,होय लालसा पूर्ण।
परमानंद मोक्ष पा,जीव होय संपूर्ण।

उत्पत्ति पालन कारण, गौरी पति लय कीन्ह।
निर्मल बोध अचिंत्य को, माया माया प्रभु कीन्ह।

✔✔✔✔✔✔NEXT✔✔✔✔


























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