रुद्र संहिता (प्रथम) - रुद्र संहिता pdf - Rudra Samhita in Hindi

(प्रथम खण्ड)

"वन्दे शिवं शङ्करम "

वन्दे देवमुमापतीं सुरगुरूं वन्दे जगत्कारण
वन्दे पन्नगभूषणम मृगधरम वन्दे पशूना पतिम ।
वन्दे सूर्यशशाङ्कवहिन्यन्म वन्दे मुकुंदप्रियम
वन्दे भक्तजनाश्रयं च वरदं  वन्दे शिवं शङ्करम ।।

शिव चरित्र पावन अमित, पद मय जो न लखाय ।
देबि कवित की शक्ति दो, रचौ विलम्ब बिहाय ।।
शिव भगवान उदार अति, सहाजइ होई प्रसन्न।
रंचक मात्र प्रयास ते, भक्त होत हैं धन्य ।।

रुद्र संहिता pdf

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रूद्र संहिता (प्रथम)

माया रहित विकार बिहीना।नमस्कार मुनि शिव भल कीन्हा।
जगत पिता गौरी जग माता। विघ्नेश्वर स्वरूप सुखदाता।
नमस्कार करि सुयेश बखानौं।महामंद मति जो कछु जाने जानौ।
नैमिष तीर्थ पुनीत सुहावन।सुर मुनि महादेव मन भावन।
वार्तालाप मुनिन उत होई।रूप पुनीत श्रेष्ठ शुचि गोई।
उमा सहित शिव सगुण स्वरूपा। दिव्य चरित्र ब्रह्मअनुरूपा।
करति सकल जगती कल्याणा। परम कृपालु विश्व सब जाना।
हो प्रसंन्न साधक पर जब हर। दुर्लभ देंय कामना तब नर।
ब्रह्मा विष्णु सुरेश गोसांई।प्रगटे सब शिव आंगन जाहीं।
परम पूर्ण शंकर भगवाना। वेद शास्त्र अरु धर्म बखाना।
आविर्भाव महेश उमा का।पाणिग्रहण मां जगदंबा का।।
लीलन की व्याख्या सब, सादर देव बताय।
पौराणिक श्री सूत जी,बोले तब हरषाय।

उत्तम बहुत प्रश्न अति सुंदर।धन्य मुनीश न तुम सम हितकर।
निष्ठा शिवपद सत्य स्वरूपा।सुनहु भक्त पवन अनुरूपा।
तीनि प्रश्न सुंदर बड़ पावन। ब्रह्म स्वरूप सुरन मनभावन।
शुचि जो जल गंगा की भांती।हो पवित्र जित द्दृष्टि सुहाती।
आदर सहित बुद्ध अनुसारा।चरित कहंहु शिव परम उदारा।
आदर सहित सुनहु मुनि वृंदा। भक्ति भक्त दोउ परमानन्दा।
प्रश्न जइस मुनिवर शुचि कीन्हा।अइसइ विधिसन नारद कीन्हा।
शिव प्रेरित देवार्षि दया मय।डूबे भक्तिहिं संभु महा जय।
विधि महान शिव केआराधक।सुत नारद जग ब्रह्म उपासक।
हो प्रसंन्न विधि शिव स्वरूप का।वर्णन कइ कइ गुण अनूप का।
शिव गुण सुयश बरनि किमी जाई। जो लखाय शिव रूप सुहाई।
सुनि मुनि कथा विप्र सब हरषे।सुर प्रसन्न दल कुसुमहु बरसे।
उत्तम बुद्धि भक्त शिव उत्तम। करहिं सुयश जो मिटइ महातम।
ब्रह्मा नारद का संवादा।मिटै महातम मोक्ष प्रसादा।
शिव लीला के रूप अनूपा।कहहु बुझाय तात प्रिय रूपा।
पूर्व काल देवार्षि ऋषि,तट सुरसरिहु पुनीत।
शैलराज के प्रांगण,सुंदर गुफा सुभीत।

सरिता देव वेग जित बहंहीं।भक्ति ज्ञान विश्लेषण करहीं।
धारण मौन कीन्ह बहु काला।अहं ब्रह्म हो देव कृपाला।
समाधिस्त ब्रह्म साक्षात्कार कर।प्राप्त विधान कीन्ह दुर्लभ वर।
तप प्रभाव तीनो लोकन मा।व्यापा जगत रूप अणुअणु मां।
कंपित इंद्र भये बहु भांती।तृष्णा मन कछु हूं न सुहाती।
ऋषि तप बिघ्न भांति जेहि होई।करंय विचार करंउ मैं सोई।
महिषी पुत्र काम को सुमिरेउ।प्रगट भये मत आपन प्रकटेउ।
कुटिल बुध्दि सुरपतिहु स्वार्थ हित। मित्र बड़े काम रहेउ कित।
तुम सर्वदा करउ हितआपन।बल तुम्हारे राजउं सिंहासन।
सुनहु मित्र नारद तप करहीं।अचल समाधिस्थ होइ रहंहीं।
डरपय मनु नहिं होय प्रबोधा।मैं नारद का चहहुं विरोधा।
राज्य याचना करंइ न विधि से।विघ्न करउ छूटय तप जैसे।
जाउ विघ्न तप नारद डारउ।मम विपत्ति यह आजु उबारउ।
विघ्न तपस्या करन हित,काम विचारति जाय।
कहेउ नांहि कछु सुरपति,पीछे मन पछताय।

करन भंग तप नारद केरा।चलेउ मनोज प्रभाव घनेरा।
प्रकटेउ विविधि बसंत स्वरूपा।कीन्ह सुरभि कामहि अनुरूपा।
शैलहु छाय काम की माया।जड़ चेतन हूं बहुत भ्रमाया।
मदन मदान्ध गंध बहु कीन्ही।विजय विश्व रचना रचि दीन्ही।
जगती चेतन विविधि प्रकारा।भूले केवल काम पियारा।
लीन काम चेतनता सारी। कामरूप जगती नर नारी।
पर नारद चित कछु नहीं व्यापा।महादेव पावन परितापा।
मद सुरेश को गयहु नसाई।महा रहस्य गूढ यह भाई।
जेहि स्थान करयं तप नारद।ज्ञान ध्यान तपवान विशारद।
पूर्व काल वह ही स्थाना। काम जलाय शंभु भगवाना।
राति वरदान शंभु इत दीन्हा।सोइ प्रभाव बश काम न कीन्हा।
व्यर्थ देख गति काम लजानेउ।विस्मित इंद्र भक्ति शिव जानेउ।
कीन्ह प्रशंसा नारद केरी।तप सन नाहि शक्ति कछु मेरी।
कीन्ह काल तप कछु उत नारद।मन माया सों आय गयउ मद।
शिव माया नारदहिं नचावति।अज्ञानी का रूप रचावति।
यह वृतांत कहंन हित सारा। कैलाशहु का मार्ग सिधारा।
राजहिं ब्रह्म रूप करुणाकर।चंद्रमौलि पावन गंगाधर।
नारद रूद्रहिं कीन्ह प्रणामा।समझि स्वयं को प्रभु सुख धामा।
नारद तात धन्य प्रिय मोरे। कहां प्रसंग जो जानंय थोरे।
पर यह बात कहेउ जनि हरि सों।पूछन पर ना निकारेउ मन सों।
विष्णु भक्त मोहि अधिक पियारे ।कारण जो अस वचन उचारे।
मत शिव का नहिं नारद भावा।ब्रह्म लोक कर पंथ सुहावा।
नमस्कार करि विधि बहु भांती। काम पराजय कही सुहाती।
निज तप का प्रभाव बड कहेऊ।सुन विस्मित विधि मन मंह भयऊ।
चरण कमल करि शिव परनामा। पुत्र निषेध कीन्ह सुख धामा।
मद का अंकुर मन में जाया।नारद मन विधि मत नहीं भाया।
इच्छा जइसि उमापति केरी।वइसय जग की माया प्रेरी।
नष्ट बुद्धि मद के बश नारद। चले कहन वृत्तांत विशारद।
विष्णु लोक पहुंचे जब ऋषि पति।भलआगमनहु कीन्ह रमापति।
कारण जानति परम कृपाला।चतुर्भुजी हरि दीन दयाला।
चरण कमल ध्यान धरि शिव के।कहहु आगमन भा कित दिशि ते।
कहहु मर्म केहि कारण आयहु।हरि अस गूढहु बचन सुनायहु।
दर्शन पाइ पवित्र भवा मन।धन्य मुनीश भक्त को तुम सन।
नारद सुनति बचन भगवाना। मन मह मद वृतांत बखाना।
अहं सने वचन नारद के। जानति हरि कारण सब मद के।
मन ही मन स्तुति करति,शिव चरनन धरि ध्यान।
कहा धन्य मुनि श्रेष्ठ तुम, भक्ति सके को बखान।

काम मोह मुनि वाहि सतावे।भक्ति त्रिदेव न जिन मन भावे।
वैराग्य ज्ञान नैष्टिक ब्रह्मचारी।जन्म विकास रहित व्रत धारी।
निर्मल मन धी भक्ति ज्ञान की।शुचि सुंदर मूरतिहु ध्यान की।
सुनि हरि के सुंदर बचन,बोले बिहंसि मुनीश।
सब समस्त तुम्हरी कृपा, जयति जगत के ईश।
महाभाग मुनि सुत जी,ऋषि बोले प्रिय बैन।
नमस्कार सादर करि,भक्ति लहंहिं नव-नैन।

धरि शुचि ध्यान चरन शिव पावन। त्रिविध ताप संताप नसावन।
बोलेउ मुनि विप्रन सन अइसे।नारद चले विष्णु ते जैसे।
माया प्रेरित नारद मारग।जानंय धीर वीर जो सब जग।
सौ योजन मह फैली माया। नगर सुहावन महा लुभाया।
विष्णु लोक ते भी अति सुंदर।परिपूर्णता कहहि अस को नर।
गुण संपन्न शील निधि राजा। सुता स्वयंवर सब विधि साजा।
भूप चारि दिशिहूं ते आये।वर के सुंदर भेष बनाये।
कन्या वरण लालसा भारी। शोभा वहु संपन्न सुखारी।
देखि नगर अस नारद सुंदर।मु्ग्ध भये जैसे सहजय नर।
संचारित तन काम प्रभाऊ। नारद शुचि बड शील सुभाऊ।
द्वार शील निधि राजा जाके।पूजित भये सभा मां आके।
देव ऋषी कर बड़ा प्रभाऊ।जो जानंय शुचि सब विधि राऊ।
पूजा कीन्ह विप्र बहु भांती। कुशल क्षेम शुभ साथ सुहाती।
श्रीमती कन्या भुलवाई।चरण कमल परनाम कराई।
कन्या देेखि भयो अति विस्मय। पूछहिं नृप सन सादर परिचय।
लखि के वाहि काम भे विवहल।बड़ि लालसा मिले मोहि केहि बल।
सब शुभ लक्षण युक्त विशाला। भाग्य शालिनी श्री सम बाला।
सुरन श्रेष्ठ ईश्वर जो सबका।हो अजेय पति सुंदर यहि का।
शिव सम विभु अरु परम उदारा।काम जयी पति मिलय अपारा।
नारद कहि नृप सन यह बानी। शिव माया सो मोहित ज्ञानी।
मग मह चले विचारन लागे।बाला मिलय भाग्य तब जागे।
करउं प्राप्त केहि भांति करंउ का।बहु विचार मन सहजय नर का।
नृप बहु सुंदर विविधि प्रकारा।नारि पियारि वहै संसारा।
देखी प्रसन्न होंय विधुबदिनी।नहिं संदेह लहहुं सुख रजनी।
सुंदरता कर सहज सुभाऊ। बश जड़ चेतन जगती राऊ।
रूप निधी सम श्रीपति सुंदर।जानय नाहिंअन्य जग दूसर।
विष्णु लोक कर पंथ सिधारा।जहां रमापति राम्य अपारा।
पीडित काम न कछुक सुहाती।कीन्ह प्रणाम यथा बहु भांती।
नृप कन्या विशाल बड लोचन।वाहि वरहुं लागे अस सोचन।
इच्छा व्यक्त कीन्ह हरि पाहीं।वरन चहहुं कछु संशय नाही।
आपन देव रूप मोहि सुंदर।जाइ वरउ वहिआजु स्वयंवर।
प्रिय सेवक मैं भक्त आपका।बढै दिनों दिन साथ नाथ का।
सुनति बचन बिहंसे भगवाना।दयावान प्रभु कृपा निधान।
प्रभुता जानि शंभु पावन की। दया वचन मृदु मन भावन की।
चाहे जहां जाउ मुनि जगती।करिहंउ हित पावहु निज भगती।
प्रिय मोहि नारद भांति बहु,कहिके श्रीपति बैन।
मरकट रूप दियो मुनि,अरु भे ब्रह्म विलीन।

कृपा करन हित कृपा निधान। अंतर्ध्यान भये भगवाना।
बिन जाने प्रभु यत्न पुनीता।नारद चहंहिं स्वयंवर जीता।
पाणि ग्रहण कर मंच अनूपा।राज पुत्र जहं राजंइ भूपा।
इन्द्र सभा सम लागइ सुंदर।दिव्य अलौकिक रूपवान नर।
धारी विष्णु जानि अपने को।वरइं राजकन्या सपने को।
निश्चय अस मन मह वड भयऊ।कन्या वरण लालसा रहऊ।
छांड़ि मोहि केहि बरिहै है बाला।दृढ़ निश्चय मन माहि विशाला।
मुख कुरूप नहीं आपन जाना।ऋषि मुनि गण सादर पहिचाना।
राजपुत्र यहु भेद न जाना।ब्राह्मण वेष रूद्र गण नाना।
रक्षा हित गण नारद केरे।विप्र भेष जानयं जग थोरे।
मूढ जानि मुनि निकट भाये जब। व्यंग वचन नारदहु कहे तब।
हो छल युक्त कीन्ह उपहासा। नहीं जो नारद सपने हूं आशा।
विवहल काम यथार्थ सुनय को।श्रीमती को प्राप्त करइ को।
मोहित सभा स्वयंवर नारद। शिव माया कर जग अनुपम पद।
कन्या राज कामिनिंन माही।पति वरण प्रकृटी सब पांही।
कनक हार कर दोउ असीना। साक्षात श्रीरूप नवीना।
खोजति वर समाज शुचिअपने।सुंदरि धीर ब्रतिन ले संग में।
सभा मनहु लक्ष्मी आ पहुंची।ढूढति बरू कछु मन मह सकुची।
मुखहि छांडि लखि विष्णु स्वरूपा।भईं कुपित पद आगे रोपा।
दृष्टि हटाय प्रसन्न्न हिये से।बढीं बहुरि विश्वास लिए से।
निज अनुरूप न पाकर कोई।पहिनायहु नहिं माला सोई।
यही अवसर धरि शुचि नरभेषा आए विष्णु न कोई देखा।
कन्या राज देख भंइ पुलकित। जयमाला को कीन्ह समर्पित।
राजा रूप विष्णु भगवाना।वाहि सहित भे अंतर्ध्याना।
कुंवरन के मन भयी निराशा। काम विकल मन नारद त्रासा।
बिकल मुनिन उपहासि रूद्र गण। कहहिं चहहु मुनि कन्या हर क्षण।
लोकहु आनंन निज को जाई। लागय जो मर्कट कि नायीं।
गणन बचन सुनि विस्मय भयऊ।शिव माया मोहित मुनि रहेऊ।
जाइ जलहिं लोक्यो निज आनन।भे अति क्रुध्द पुत्र चतुरानन।
विप्र हंसी कारण गण दूनव। जाय राक्षस होयहउ कवनउ।
सुना शाप मुनि मोहित जानी स्तुति शंभु करति गे ज्ञानी।
सब इच्छा यह संभु की,माया बड़ि बलवान।
मनुष्य देव गंधर्व की, छल प्रपंच की खानि।

भा कमलापति पर अति क्रोध।होइ न मन केहि भांति प्रबोधा।
जानि कीन्ह छलु विष्णु साथ मोहि।क्रोध प्रचंड लोक गे हरि पहिं।
पावक लपट वाक्य सब लागहिं।ज्ञान नष्ट मद वचनहु भाषहिं।
कहा कुटिल हरि तुम वड कपटी।मायावी बहु माया प्रकृटी।
मर्लिन ईर्षा चित मंह तुमरे।सकहु न देखि प्रगति पथ दुसरे।
प्रथम मोहिनी रूप बनायो।असुरन मदिरा पान करायो।
दयावान शिव परम उदारा।कीन्ह पान विष जग का सारा।
नत यह होति नष्ट सब जगती होतिउ कहां कुचाली कपटी।
कपट चाल यह सदा पियारी।अरु स्वभाव कलुषित बड़ भारी।
तेहि ते परमानंद उदारा।महादेव सर बस आधारा।
विप्रन श्रेष्ठ कहा जग सबसे।पहचानि तुम्हें पछितावंहिं तब से।
उन शिव बल ले भक्ति पुनीता।चहंहुं तुम्हें सिख देन सुनीता।
अब तक मिला तुमहि नहिं कोई। मिली न जाते शिक्षा सोई।
जेहि स्वरूप मम संग व्यवहारा।नारि हेतु दुख दीना अपारा।
होइके मनुज दुखः सब भोगिहउ।कष्ट मनुज के सब सिर धरिहउ।
होइहैं मर्कट तुमहि सहायी। विकल विरह होइहउ रघुराई।
स्त्री विरह बिलग होई पीड़ित। अज्ञानी अस होइहउ विचलित।
नर लीला करिहउ जग जायी।दीन्ह शाप मुनि जस जो भायी।
शिव माया हरि कीन्ह प्रशंसा।ग्रहण शाप की मन मंह मनसा।
मोहक विश्व शंभु बड़ि माया। जो जग जाया वाहि भ्रमाया।
माया हरि जो नारद मोहा। बुद्धिमान ऋषि आनन सोहा।
पश्चाताप कीन्ह बहु भांती।मन मह हरि की भक्ति सुहाती।
जाइ गीरे चरनन मंह हरि के ।क्षमा याचना बहु बिधि करिके।
श्रेष्ठ भक्त मम नहिं संदेहा।खेद न करहु दुख जो गेहा।
श्रेष्ठ भक्त मम नरक न होई।निर्मल चित्त उपासक जोई।
शंकर वाक्य व्रम्हअनुरूपा। मानेउ नहिं हो ऋषि वड भूपा।
महादेव करिहंय कल्याणा।जो माया कर कीन्ह निदाना।
करता हरण गर्व के शंकर।नंद सचिदा पावन भूपर।
निर्विकार सत रज रहि्त,तम तीनिहु ते दूरि।
निर्गुण सगुण स्वरूप ले,मिलहि महा शुचि भूरि।

मोहि जग पालक अरु विधि सृष्टा।रूद्र महा सब के संहरता।
संशय छांणिक शंभु उपासहु।जप तप सुंदरि भक्ति प्रकाशहु।
नष्ट पाप होइहंय सब जाते। ध्यान स्वरूप शंभु उर लाते।
नख शिख भस्म करउ तन धारण। नमः शिवाय मंत्र उच्चारण।
शुचि रुद्राक्ष अंग करि धारण।पूजि सदाशिव पाप निवारण।
शुभ शिव कथा भक्त प्रभु पूजउ। निरालस्य पथ और न दूजउ।
जाउ महा बन शिव आनंदा।चरण कमल परसन मुनि वृंदा।
करउ प्रणाम जगत पति वोही।ब्रह्म स्वरूप सुहावति जोही।
ब्रह्मलोक जा विधि आराधहु।स्तुति नमस्कार बहु साधहु।
महातम्य शिव महा अपारा।स्त्रोत जाप के विविध प्रकारा।
हो अब शैव कृतार्थ होओ।पाप पुंज पंकिलता धोओ।
पा कल्याण भक्ति प्रिय पइहउ।परमारथ वादी मुनि होइहउ।
शिव चरनन का ध्यान धरि,स्तुति करति बहोरि।
महादेव महिमा अगम,कहति कमल कर जोरि।

अंतर्ध्यान भये भगवाना।करन सृष्टि जगती कल्याना।
विचरति मुनि ले भक्ति नवीना।ज्ञान ध्यान तप वान प्रवीना।
पूजति लिंग विधिधि विधि नाना।शिव सुंदर चरनन धरि ध्याना।
विचरति धारा भक्ति ले बारिधि। मुनि घेरहिं चहुं दिशी सों सब सिद्ध।
जिन शिव गणन दिन्ह मुनि शापा।चरनन गिरे क्षमा कर मापा।
विधिवत सादर परिचय दीन्हां। मुनि प्रसन्न सादर शुचि कीन्हा।
पाणिग्रहण श्री श्रीमती का। मन मोह मद देव ऋषि का।
स्मरण शाप सादर करवायहु। द्रवित महामुनि मन अस भायहु।
हो या असत्य न ऋषि की वानी जानंय जगत जाहि मुनि ज्ञानी।
होइ दोउ असुर ऋषी सुत जगती।पयहहु शिव मन भावन भगती।
‌‌शिव माया सों नष्ट भय, बुद्ध विमल गण देव।
क्षमा करहु निज मित्र को,भाभी फल जग लेव।

जन्म वीर्य मुनि जो जग पावन।राक्षस ऐश्वर्य प्रताप सुहावन।
निज बल हो ब्रह्मांडहिं राजा।जितेंद्रिय शिव पद हृद साजा।
शिव शरीर तजि राक्षस देहा।निज पद पावहु नहिं संदेहा।
सुनि भे मुदित शंभु गण दोऊ। जानय यह प्रसंग कोउ कोऊ।
दर्शन करति लिंग शिव सुंदर।पावंहि सुख बहु चरनन हरि हर।
विश्वनाथ पुर काशी पावन।महादेव उर बड़ि मन भावन।
काशीनाथ भली विधि पूजा।जन्म कृतार्थ जाय किमि कहि जा।
परमानंद पाइ शिव पूजेउ।महातम्य अरु सुयश विलोकेउ।
विवहल प्रेम ब्रह्म गे लोका।ज्ञान ध्यान ले भक्ति विवेका।
शिव तत्व मात पिता हों, पूछिं विविधि विधि लीन्ह।
सब लागे शिव मय जगत,कृपा महाप्रभु कीन्ह।
पूछि तत्व शिव परमपिता सों।कीन्ह भगति मय सब वसुधा को।
विधि प्रसन्न चित्त मत यह भावा। कल्याण रूप आनंद सुहावा।
उत्तम प्रश्न विष्णु नहि जानै।महा प्रलय का रूप वखानै।
नष्ट सकल स्थावर जंगम।सूर्य चंद्र ग्रह नहिं जित बड तम।
अग्नि वायु पृथ्वी अरु रजनी।नभ प्रधान नहिं तेजहु तरुनी।
घोर महा तम प्रलय काल की।महा सूक्ष्म लय पारब्रह्म की।
केवल एक ब्रह्म संसारा।असत न रहा रूप जग सारा।
ध्यान धरहिं जेहि पावन योगी। ब्रह्म बहोरि ज्ञान संयोगी।
नाम रूप नहिं वर्ण प्रभाऊ।सूक्ष्म स्थूल रूप नहिं काऊ।
छाय दीर्घ लघु घटना बढ़ना। लखि श्रुति चकित जाय नहिं वरना।
सत्ता देखि चकित श्रुति सारी।सत्य ज्ञान आनंद विहारी।
परमानंद अनंत स्वरूपा।परम पुरुष जगती बड़ भूपा।
शोभा ज्ञान युक्त बड़ि पावन।जो अमूर्त पा तत्व सुहावन।
मूर्ति सदाशिव शुचि‌ बडि वोही।अर्वा पराचीन हो जोई।
ईश्वर मूर्ति वेद शिव मानय। निर्विकार श्रुति सादर जानय।
प्रकट कीन्ह स्वच्छंद शरीरा।नाशि न होय शक्तिबलबीरा।
प्रकृति प्रधान गुणवती माया।रहित विकार तेज जग छाया।
बुद्धि तत्व अरु जननी जग की। शक्ति अंबिका सब ईश्वर की।
जो त्रिदेव जननी जग पावन।नित्या कारण मूल सुहावन।
आठ भुजा मुख अनुपम जिनके।शुभ्र सुहाने रूप जननि के।
अचिंत्य तेज जग जिनते जाया। सब सुरंम्य जो परम सुहाया।
माया संयोग अनेक प्रकारा।रूप होंहिं जो सब महिधारा।
परम पुरुष शिव सिर पर गंगा।भक्ति रूप गल लसंय भुजंगा।
भालचंद्र अरु नेत्र सुहावन।आनन पांच भुजा बड़ि पावन।
वर्ण गौर चित परम उदारा।शिव त्रिशूल स्थित संसारा।
कर्पूर सदृश्य वर्ण अति सुंदर।भस्म रमाये तन शिव शंकर।
चित्त प्रसन्न अरु परम उदारा।शिव समान को है संसारा।
साथ शक्ति के रचि शिव लोका। काशी कहति मिटयिं सब शोका।
परम पुरुष सर्वोपरि सुंदर। शंभु उमाअन्यत्र न दूसर।
करहिं निवास जगतपति हर क्षण। प्रलय काल मा होय सूक्ष्म तन।
अविमुक्त क्षेत्र यह ही संसारा।वन आनंद रचा शिव सारा।
शिव अरु शिवा रमण जित करते।पाप द्वैष उत सब कहं रहते।
बहुत काल मन मह आननंदा।रमे शिवा शिव परमानंदा।
अन्य पुरुष निर्माण की,मन लालसा अपार।
भार सौंपि जेहि सृष्टि का, काशी भजहुं उदार।

काशी शयन सोचि शिव शंकर।दक्षिण दशवें अंश प्रकट कर।
सुधा रूप आसव व्यापारा। पुरुष त्रिलोकी आविर्भारा।
शांति सत्व गुण अति गंभीरा।पूज्य अजेय महा मतिधीरा।
कीन्ह प्रणाम शंभु बहु भांती।नाम कर्म सब कहि आराती।
सुनि जेहि बिहंसि कहा मृदु बानी। व्यापक सर्वत्र विष्णु तुम ज्ञानी।
सुख कारक सब भक्तन केरे।होइहंय अउरउ नाम घनेरे।
परम काज हित तुम तप करहू।शिव सुख बेदन को हिय धरहू।
नमस्कार करि शिव शंकर को।किन्ह कठिन तप विष्णुअखिल को।
कहि अस हर भे अंतर्ध्याना।शासक सृष्टि सकल भगवाना।
दिव्य बारह हजार जब पावन।बर्ष कीन्ह तप देव सुहावन।
पाइ ना तबसे शिव के दर्शन। बिकल बहुत भक्ति सुंदर मन।
मनोरथ कल्याण वान छवि चाहंहि।दर्शन संभु न दुर्लभ पावहिं।
भइ चिंता मन माहिअपारा।वाणी अकाश भइ महा उदारा।
संशय दूरि करहु तप भारी।महा विष्णु होइहउ त्रिपुरारी।
कीन्ह घोर तप विष्णु कृपाला।प्रकृटी तबहिं विविधि जलधारा।
व्याप्त रूप जल ब्रह्म स्वरूपा।दर्शन भाग्य लहंहि शुचि भूपा।
थके बहुत मन माहि प्रसंता। निद्रा माहि रहे भगवंता।
श्रुति सम्मति नारायण नामा।प्रकृति पुरुष पावन सुख धामा।
अन्य नाहि जगती मंह कोई।केवल शिव स्वरूप सब गोई।
तत्व प्रकृति महान सब उपजे। अहंकार गुण तीनिहु प्रकृटे।
तीन रूप गुण तीनि पुनीता। अहंकार जगती पर तीता।
पंचभुज तनमात्रा प्रकृटे।कर्म ज्ञान इंद्रिन के हिय से।
बिना पुरुष प्रकृति जड़ रूपा।कार्य सुहावन महा अनूपा।
चौबिस प्रकार सब तत्त्व सुहावन।सुंदर महादेव मनभावन।
यह सब कुछ एकत्र हो, ब्रह्म रूप जो लीन।
सो हरि संग जल में रहे,रचना रची नवीन।

नाभि माहि हरि कमल सुहावा।बड़ि परिमाप न कोउ कहि पावा।
साथ साम्य मोहि करिउत्पन्ना।शिव प्रभाउ जग जाय न वरना।
हिरण्य गर्भ अति कमल पुनीता। आनंन चारि त्रिपुंड सुनीता।
छाडि कमल नहि अउर विलोकेंउ। ज्ञान हीन मन मह संतोषेंहु।
कौन हूं मैं यह प्रश्न संघना।दशा विचित्र जाय नहिं वरना।
बुद्ध विमल कछु क्षण मह पायहुं।करता ढूंढि कमल तर आयहुं।
एक एक मथि के जलधारा। वर्ष सहस्त्रहु बीते पारा।
नाभि कमल मुनि मैं नहीं पावा। इच्छा बस फिरि ऊपर आवा।
मार्ग नाल मिलि कमल कली के। मंगलमय तप वाणी सुनने के।
नाशक मोह महा प्रिय बाणी।कीन्हेउ तप बड जयसइ प्राणी।
चार भुजा धारी भगवाना।अति सुंदर नहिं जाय बखाना।
सुंदर नेत्र पीतांबर धारी।आयुध खानि महा व्रत धारी।
आभूषण नहिं जाय बखाने।जिंन लखि कोटिक काम लजाने।
हो मोहित देखेंउ सुंदरता।सत अरु असत दोउ की क्षमता।
माया मोहित शिव संसारा। बोलेउ परिचय देउ उदारा।
निज कर पुरुष पुरातन,पावन महान जगाय।
जो जागे क्षण मात्र में,अरु अस कहा सुनाय।

पूरण करिहंउ सकल कामना।या में देवार्षि कछुक शंसय ना।
विरोध तमोगुण ते मैं माना।अरु जनार्दन अइस बखाना।
हो निष्पाप न तुम यह जानउ।मैं संघार हेतु यह मानउ।
शासन भक्त भांति तुम करहू।मैं साक्षात सनातन अहहूं।
करता जगत प्रकृति प्रवर्तक।अज ब्रह्म अरुअखिल नियंत्रक।
स्वयंभू अरु विश्व आत्मा।परमेष्टी स्वराट अजन्मा।
कहतय क्रुध्द भये भगवाना।करता लोक तुमहि हम जाना।
उत्पंन्न अंग मम हो अविनाशी।भूले जगन्नाथ सुख राशि।
नाभि कमल भेउ प्रकट न दोषू।मोहित माया कीन्ह महेशू।
सुनहु चतुर्भुज और पुरातन।ईश्वर देव और यह शासन।
मैं करता सब जग में व्यापक। पार ब्रह्म अरु वेद प्रकाशक।
तत्व पितामह जगत चराचर।स्थित जानि सकल सारे सुर।
रक्षा सकल दुखन हों करिहंउ।सदा त्रिलोकी रूप सवंरिहंउ।
सुनि हरि बचन भवा उर क्रोधा। नारायण कर कीन्ह विरोधा।
ईश्वर पार ब्रह्म तुम नाहीं।करता है कोई जग माही।
मोहित विश्वनाथ करि माया। हरि सन कीन्ह युद्ध मन भाया।
बीच लिंग दोऊ के प्रकटा। बंद युद्ध मन सहजय लरजा।
नमस्कार दोउ सादर कीन्हा ।शक्ति महेश सकल बड़ि चिन्हा।
स्तुति करत महेश की, दोऊ दोउ कर जोरि।
रूप वास्तविक का प्रभु,दर्शन चहंहु बहोरि।

स्थिति यहि प्रकार मन माही।बीते।वर्ष सहस्त्रहु जांही।
गर्व दूरि दूनउ का करिके।दयावान की वाणी सुननि के।
महा नादओम सुनि विस्मित।जानन चाहंहि नाद दिशा कित।
देवाराध्य विष्णु उत्तर में।सनातन आद्य वर्ण दक्षिण में।
अकार उकार महा सुखदाई। ओमकार महं राजति भाई।
सूर्य चंद्र सम होई प्रकाशा।आदि अंत का नही परिहासा।
सत आनंद अरु ब्रह्म स्वरूपा।राजंइ साक्षात शिव भूपा।
प्रकट कहां ते यह सब,करन परीक्षा हेतू।
जा नीचे देखन चहंहु,त्रिविधि सुख कर सेतु।

वेद शब्द संन करंउ बिचारा।विश्वात्मा उभय जग सारा।
आविर्भाव परम ऋषि ज्ञानी। जाहि पूजि हरिभे बड ध्यानी।
ब्रह्म शरीर और शिव ज्ञाना।कीन्ह प्राप्त सादर भगवाना।
अचिन्त्य नीच अप्रिय जग नाही। ओमकार जित मात्र सुहाही।
एकाक्षर ऋत सतआनंदा।पार ब्रह्म जो परमानंदा।
वाही सन विधि सादर जाये।उकार रूप कारण हरि आये।
लोहित नील मकार भवानी।महादेव सब जगती जानी।
जग सृष्टाअपार यह पावन।उकार मकार शंभु मनभावन।
मोहन नित्य अनुग्रह करता।बिजी विभु सब शिव की सत्ता।
अकार बीज शुचि सब भाषी।पुरुष प्रधान ईश सुख राशी।
उकार रूप कारण जग जाया।बीजी बीज नाद बन अाया।
संज्ञा सबहिं महेश्वर जानहु।गोचर जो वह शिव मय मानहु।
प्रभु बीजी के लिंग अकारा। योनि गिरा ले रूप उकारा।
चारिउओर बढय बहु भांती।फल जा के शुभ अंड सुहाती।
कनक अवेद्य न जानन हारा। लक्षण रहित जाय संसारा।
बहुत काल स्थिति जल माही। कीन्ह भाग दो वहि हर जाहीं।
स्वर्ण मई शुचि महा विशाला।जाये वर्ण जथा वहि काला।
तत्व पांच जो नीचेले भागा।ले प्रकृटी वसुधा अनुरागा।
नाम मकार चारि भुज वाले।प्रकटे शिव शुचि भोले भाले।
सृष्टा तीनिलोक के जगती।भये रूप धारी बड भगती।
यजुर्वेदी कहि ओम ओम पावन।हरे हरे ब्रह्म मनभावन।
यथा योग्य देवे शुचि ज्ञाना।स्तुति करति सकल शिव नाना।
मौ सम पालक विष्णु उदारा।देखति रुप जगती शुचि सारा।
आनंद पांच भुजा दस पावन।गौर वर्ण सुंदर मन भावन।
परम कान्ति अरु महा उदारा।भूषण अतुल करंइ उजियारा।
देखि कृतार्थ भये हरि लोचन। लक्षण श्रेष्ठ मूल भव मोचन।
परमेश्वर महेश हो प्रमुदित। दिव्य शब्द मन सादर स्थिति।
सगुण शब्द मय लोकि स्वरूपा। सब कुछ लगे ब्रह्म अनुरूपा।
नमस्कार दोउ सादर कीन्हा।सुंदर मंत्र यथा विधि लीन्हा।
दायक बुद्धि अर्थ जो साधक। गायत्री जेहि कहंहि उपासक।
उत्तम जो जग चारिउ काला।पंचाक्षर शुभ्र धवल ले धारा।
आठ कला के विविध प्रकारा।शांत शुभ्र राजंइ संसारा।
मारण अभिचार कर्म उत्पत्ती। श्वेत शांति संहार विपत्ती।
भिन्न-भिन्न न्यूनाधिक संख्या।इकसठ वर्ण मंत्र की व्याख्या।
दूसरा मंत्र महामृत्युंजय। नाम प्रभाव न या में संसय।
ओम जू सःत्रयंबक यजा महे।पंचाक्षर जप श्रेष्ठ सुर कहे।
नमः शिवाय क्षम्यो चिंतामणि। मंत्र दक्षिणा मूर्ति महा मणि।
तत्व मसि महा वाक्य आराधक।पांच मंत्र विष्णु बड साधक।
ऋक यजु साम महा वरदायक।साम्ब सदा बड शिव सुखदायक।
विष्णु देखि स्तुति करति,शिव भे महा प्रसन्न।
नेत्र तीनि अरु पांच मुख, शुचि ललाट संपन्न।

सिर पर जटा महा सुख कारी।गौर वर्ण लोचन प्रिय धारी।
भस्म सुहावति शुचीअति अंगा।नीलकंठ पावन सिर गंगा।
सुंदर भाल त्रिपुंड सुहावति।भूषण भूषित को कहि पावति।
लोकि विष्णु मैं करि बड़ि स्तुति।करुणा कर दे वेद मई मति।
भये विष्णु वाते वड पावन।अति शुचि महादेव मन भावन।
ज्ञान दीन्ह मोहि परम उदारा।जो जानइ समस्त संसारा।
हरि पूछा हे देव, विधि केहि होति प्रसन्न।
भांति कवन पूजा करंउ,जन्म जासु हो धन्य।

हम दोउ सेवक देव तुम्हारे।आज्ञा रत अस बचन उचारे।
सुनति प्रसंन्न भये शिवशंकर।श्रेष्ठ देव नहिं जिन सम दूसर।
देखि प्रसन्न भक्त बड़ भयऊ।चिंता छाडि भक्ति अनुसर हू।
पूजहु लिंग सदा सुख कारी।ध्यान ज्ञान पावन हितकारी।
ज्ञान ध्यान के विविधि प्रकारा।दुख हरण जगती महि भारा।
दुख सकल सब जायं नसांही। लिंग पूजा जिनके मन माहीं।
पूर्ण मनोरथ हो फल पावहिं।लिंग पूजा जिनके मन भावहिं।
दाएं बाएं अंग उत्पना।तुम पर मैं बड़ देव प्रसन्ना।
पार्थिव मूर्ति बना मोहि पूजहु।सुख आयसु यह भक्ति देव बहू।
शिव पूजा विधान बतलावा।जा सों सुख सागर शुचि पावा।
अनेक फलन जो सुंदर दाता। चित वहि लाओ विष्णु विधाता।
कर जोरि विष्णू कहति,जो प्रसन्न मम देव।
चाहहु देन महां वर,भक्ति अटल मोहि देव।

रूप याहि मम हितकर सुंदर। करहु देव हो जगत कलाधर।
प्रकृति शांति मोहि दोऊ दीन्हा।दोउ कर जोरे विष्णु प्रवीना।
अगुन सगुण रक्षा संघारा।करता मैं जग परम उदारा।
परम ब्रह्म लक्षण निर्विकारी।नंद सच्चिदा बड व्रत धारी।
ब्रह्मा विष्णु महेश स्वरूपा। भेद तीनि चित के अनुरूपा।
मम स्तुति बड़ि कीन्ह उदारा। ब्रह्मा विष्णु जगत आधारा।
करिहंउ सत्य भक्त होय वत्सल। रूद्र अंग तुम्हारे जा शतदल।
हो मम अंश न्यून नहि गोई। अरु स्वरूप कछु भेद न होई।
शिव सब रूप रूद्र भगवाना। पूर्वा पर नहिं जगत बखाना।
भेद मात्र कर्म मह होई।कारण भिन्न न जानय कोई।
भेद मानि पावइ बड बंधन। गुप्त भेद कहिहंउ वड तुम सन।
तुम दोउ प्रकृति परम उत्पन्न। रुद्र और विधि भये प्रसन्न।
मूलभूत शिव रुप सनातन। ज्ञान अनादि अनंत पुरातन।
रूद्र प्रकृति तामस गुण रूपा।बैकारिक नहिं सत्य स्वरूपा।
कर्ता सृष्टि सकल विधि नाना। हो ब्रह्मा वड सुयश बखाना।
पालक हरि भगवान उदारा।करिहंइ रूद्र सृष्टि संघारा।
उमा प्रकृति परमेश्वर नामा।देवि सरस्वती सुंदर श्यामा।
शक्ति स्वरूप विधिहिं की बामा।पइहैं कीर्ति भक्ति अभिरामा।
शक्ति प्रकृति उत्पन्न भवानी।नाम लक्ष्मी जग कल्यानी।
आश्रय रूप विष्णु जो संगा।प्लावित करिहैं भक्ति तरंगा।
काली नाम अंश मम पाई। कार्य सिद्धि शुभ ज्योति सुहाई।
मंगलमय दोउ भक्ति अनुपा।महाशक्ति जो जगती भूपा।
देव ग्रहण करि पावन शक्ती।अब त्रिलोक विखराओ भक्ती।
लक्ष्मी ग्रहण करहु हरि जाई।कीर्ति जगत जा सदा सुहाई।
दायक बुद्धि चराचर देवी।पा विधि हो जगती सुर सेवी।
रूद्र रूप ग्रहण करी काली।करिहंउ मैं संघार सुचाली।
रचना लोक चारि की जिनते।करिहंउ जा सादर प्रिय मंन ते।
नाना कार्य करहुं बहु भांती। ज्ञान जहां विज्ञान सुहाती।
सुख को पाइ लोक सुख लोकहु।दूरि भगाओ सारे श़ोकहु।
हृदय बास मम हरि करें,मैं हरि ह्रदय निवास।
अंतर लखहि न भक्त कछ,पावय वहइ प्रकाश।

तुम्हरे संबंध मोरि अस आज्ञा।पूज्य त्रिलोक लहहु शुचि प्रज्ञा।
ब्रह्मा रचे लोक दुख होयी। सब विनिष्ट करिहउ तुम सोई।
सब कार्यन मह होउ सहाई।अरि संहांर करब सब जाई।
धारण करि अनेक अवतारा।शुभ कल्याण कीर्ति विस्तारा।
तुमहि रूद्र कछु भेद न होई।निंदा करति पूण्य क्षय होई।
निग्रह और अनुग्रह नाना।करि विधि भालहु विष्णु सुहाना।
सदा दुख मह होउं सहाई। वचन अइस कह संभु गोसांईं।
मुक्ति भुुक्ति पावन फल दाता। हो अध्यक्ष सुरन मह ज्ञाता।
प्राण रूप साधक सब काजा। संकट हरण उपासहुं राजा।
नमःआश्रय दुख सकल विनाशति।हरि अस शंभु महामत भाषति।
दोनों मांहि लखयि जो अंतर।निश्चय जाय नरक मह वह नर।
आयुर्बल तीनों देवन का। सुनो देव सादर त्रिभुवन का।
युग सहस्त्र चारि का पावन। दिन सादर विधि का मन भावन।
यही क्रम सन रजनी जानहु।दिन का तीस मास एक मानहु।
बारह मास अवधि एक साला।आयु वर्ष सौ महा विशाला।
ब्रह्मा वर्ष विष्णु दिन पावन। जो प्रमाण शिव के मन भावन।
वर्ष विष्णु दिन रूद्र पुनीता ।सौ सौ वर्ष आयु सब जीता।
उत्पन्न स्वांस शिव मुख मंह पावन।इक्कीस हजार छे सौ दिन का धन।
साथ रात्रि रमणीय सुहाती।छह उच्छवास विश्राम कहाती।
जो परिमाण एक पल केरी।साठि पल एक घड़ी घनेरी।
अक्षय शिव स्थान अनूपा। पार ब्रह्म का दिव्य स्वरूप।
आज्ञा मम रक्षा करि रूपा। सृष्टि कार्य आलोकित दीपा।
सुनि शिव बचन कीन्ह परनामा।कहिकइ कृपासिंधु सुखधामा।
शिरोधार्य करि आज्ञा पावन। वचन दीन्ह हरि शुभ मन भावन।
फेरि हाथ सर्वांगं शिव, हरि मंगलमय कीन्ह।
वर धर्मोपदेश दे,अरु भे ब्रह्म विलीन।

पूजा लिंग लोकि वहि काला।विधिवत छाई भगति विशाला।
मुक्ति भुक्ति शिवलिंग प्रदायक।शुचिआख्यान महा सुख दायक।
दिव्य प्रभाव लिंग दुख नाशक। विधि नारद बड शंभु उपासक।
माध्यम संवाद कहहु विधि पूजा।हों प्रसन्न जाते शिव गिरिजा।
पूजा चारि वर्ण अधिकारी। देव कहहु विधि मंगलकारी।
जइसइ व्यास कहिनि मुनि तुमसे।कहहु देव वह सादर हमसे।
अइसइ सनत कुमारहु पूंछा। ऋषी व्यास मन जस शुचि इच्छा।
सुनेउ वाहि उपमन्यु मुनीषा।जिनते सुनेउ कृष्ण जग ईशा।
प्रथम जइस विधि कहा सुनावउ।हर का अति मंगल जस गावउ।
पूजा लिंग संक्षेप सुनायी। सुनहु भक्त जस चित लायी।
विस्तार कहे विस्तारइ जन्मा। पूर्ण न होइ कथा शुचि धर्मा।
यथा शक्ति से शिव आराधहि।नाशि अनिष्ठ अखिल सुख साधहि।
अर्थ काम हित सिद्ध सुहाई। भक्ति शंभु जेहि के उर भाई।
ब्रह्म मुहूर्त पूजि शिव शंकर। पूजा तीरथ जग वड हितकर।
हरि उदार पूजहिं बहु भांती।सुर मुनि पूजा जस जेहि भाती।
शिव स्त्रोत पाठ करि पावन।कर्म निवृत्त नित्य मन भावन।
शुद्ध भक्ति निज करइ शरीरा। ज्ञान ध्यान जपवान अधीरा।
उत्तम संध्या एकांत सुहाई ।भक्ति संभु उर जाके जाई।
सर्व प्रथम पूजन विघ्नेश्वर।सविधि पूजि सादर भुवनेश्वर।
आसन बैठि शंभु स्थापन। प्राणायाम अरु करइ आचमन।
त्रंबक ध्यान धरय उर माही। हर बाघंबर दिव्य सुहाहीं।
प्रणव मंत्र षडन्यास करि,शिव पूजा आरंभ।
प्राप्त करय विधि गुरु सन,तजि माया अरु दंभ।

मंत्रन वेद सहस जलधारा।चंदन पुष्प प्रणव दे सारा।
वेद मंत्र ते बहुत उपसइ।नमस्कार जप पावन साधइ।
देय अर्घ शिव चरनन माहीं।कुसुम दिव्य जो मन को भाहीं
करि प्रणाम विधिवत आराधहिं।भगति पंथ प्रिय पावन साधहिं।
ज्ञानी हो या बड़ अज्ञानी।पूजा सफल करय जग जानी।
हर्षित हो प्रिय पुष्प चढ़ावे।बचन स्वास्थि उर मां निज लावे।
अपराध क्षमा हित करे आचमन।मंत्र अघोर प्रार्थना ले मन।
नमस्कार लइके परिवारा।पूजि संभु प्रिय महा उदारा।
सर्व सिद्ध पद पद पर पावे।भक्ति संभु जेहि के उर आवे।
मिटइं दुख अरु हो कल्याना।बुध्दि शुद्ध पावे सुख नाना।
शिव पूजा की विधि कहीं,कहंउ करंउ किमि देव।
सुनन चहंहु वृतांत सुर,जासु पुण्य फल लेंव।

सागर क्षीर विष्णु मन भावन।ऋषिन सहित मैं गयउं सुहावन।
स्तुति कीन्ह बहुत मन लाई।भगति बचन जित दिव्य सुहाईं।
शिव चरनन धरि सादर ध्याना।में प्रसन्न अरु अइस वखाना।
ब्रम्हदेव आयो केहि काजा।सहित लिए बड रम्य समाजा।
आपन काज कहहु मम पांहीं।सुनि बोले अस ब्रह्म गोसांई।
दूरि करन हित दुख जग नाना।केहि आराधहुं मैं भगवाना।
भूत और वर्तमानहु देंखेहुं।शिव प्रभाव जग परम विशेषहु।
परम सेव्य शिव शंकर जाना। भगति साधि सुख पाइब नाना।
मम ब्रह्मा दोनों की सम्मति।लहहुं सुख शिव चरनन की गति।
शिव पूजा जेही परम पियारी।पूजि लिंग सुर होंय सुखारी।
तारक पुत्र छांडि शिव पूजा।बांधव सहित नाशि भे जग जा।
पूजा लिंग महा सुखदाई। श्रेष्ठ जगत सुर शिव मन भाई।
भजेंउ कबहु नहीं शिव त्रिपुरारी।जग करता आनंद बिहारी।
सकाम शिवार्चन अति प्रिय पावन।आशुतोष शिव के मन भावन।
वहीं अंधता और मुग्धता।हानि बड़ी अरु है दरिद्रता।
जित शिवार्चन होइ न भाई।भक्ति शंभु की कहां सुहाई।
सकल सुख और मुक्ति प्रदायक। पूजहिं शंभु श्रेष्ठ सुरनायक।
बहु बिधि पूजि लिंग भगवाना। कल्पित मन कर अति विधि नाना।
विश्वकर्मा बोलाय भगवाना सृष्टि उद्धार स्वरूप बखाना।
मम आज्ञा कारि लिंग कल्पना। प्रदान करहुं जस भक्ति भावना।
लिंग कल्पना किमि कहि जाई।शिव स्वरूप बहु भांति सुहाई।
पद्म राग मणिका सुरेश को।स्वर्णमयी सुंदर कुबेर को।
पीत मणिका धर्मराजहि दीन्हा।वरुण श्याम वर्ण को लीन्हा।
इंद्रनील मणि को हरि पावा।स्वर्ण सृष्टि चतुरानन भावा।
रजत बसु दीन्हेउ विश्व देवा। कुमार अश्वनी पीतल सेवा।
आदित्य ताम्र स्फटिक लक्ष्मी।मोती शशिहिं दिन्ह प्रिय धर्मी।
बॼलिंग महि सुरन सुहाई। मांटी लिंग नारि मन भाई।
मक्खन देवी चंदन नागा।योगी भस्म पूजि अनुरागा।
दधि का लिंग यक्ष को दीन्हा।छाया शुचि मिट्टी का लीन्हा।
यही प्रकार सब लिंग गहायी। आयंउ अपन लोक हरषायी।
पूजा विधि सब सुरन बतावा।ऋषि अरु भक्त अमित सुख पावा।
होय न ज्ञान उदय मन जब तक। प्रतिमा पूजन है वड हित कर।
सगुणहु निर्गुण मिलि आनंदा।चंद्रमौलि शिव परमानंदा।
प्रतिमा पूजन शिव फलदायक।भक्ति अनुरूप होय सुखदायक।
ज्ञान रूप रंग की उत्पत्ती।अरु विज्ञान प्राप्त हो भक्ती।
पंच देवता का आराधन। सब के मूल शंभु का आसन।
मूल सींचि त्रप्त हो शाखा ।यह मत ज्ञान रूप मैं भाषा।
शिव पूजा सब सुरन की,हो जैसे संपन्न
कार्य सिद्धि अरु फल मिलै,जो दुर्लभ जग अन्य।

सर्व काल अति उत्तम पूजा।कहंहु बुझाय न जानहुं दूजा।
शैय्या ब्रह्म मुहूरत त्यागी।हृद शिव पार्वती अनुरागी।
सुमिरि सुमिरि बिनवइ बहु भांती।शयन हृदय मह करउ अराती।
उठहु उमापति मंगल दाता।सकल सृष्टि ब्रह्मांड विधाता।
धर्म प्रवृत्ति निवृत्ति आधर्मा। प्रेरक प्रभु मोहि दो शुभ कर्मा।
कहीं अस ध्यान गुरू चरनन का। वैदिक क्रिया निवृत्तिहु तन का।
तन करि शुद्ध विविधि विधि ज्ञानी। आराधहि शुचि शंभु भवानी।
मृग चर्मादि भक्त करि आसन।भस्म त्रिपुंड न दूसर जग धन।
कार्य सिद्धि हित शिव आराधइ।मंत्र जोग जप बहु बिधि साधइ।
गंगा बिंदु आचमन माही।गुरु विधान सर्वांग सुहाहीं।
गुरु संग सीख विधानहु पूजा।सामग्री एकत्रित करि जा।
अक्षत गंध पुष्प जल पावन। भक्ति युक्त अर्घ मन भावन।
ऊपचार मूर्ति दक्षिण स्थापित।सिंदूरादि सों करइ प्रतिष्ठित।
नाशक विघ्न शंभु साधना।द्वारपाल महोदर उपासना।
सती पार्वती की करि पूजा। धूप दीप चंदन गोरस जा।
नाना प्रकार नैवेद्य सुहावन। वेद मंत्र स्नानहु पावन।
उपदिस्ट महा मंत्र उच्चारण।यथा ज्ञान अरु सांख्य निवारण।
नाना स्त्रोत प्रीति मन लाई।भक्ति संभु बृष मन बड़ि भाई।
शिव परिक्रमा साष्टांग प्रणामा। मंत्र भक्ति पुष्पांजलि श्यामा।
अब परिवार साथ प्रभु जाओ।पूजा काल हरषि फिरि आओ।
प्राण चित्त मम प्रभु में राजें।हो प्रसन्न मन माहि बिराजे।
भक्तवत्सल शंकर भगवाना।करइ विसर्जन हृद बहु नाना।
शिरोधार्य करि जल वह सादर। शिव पूजा जग जाइ उजागर।
आगे कहंहु जो जानन चहहूं। इच्छा हर मैं सादर कहहूं।
पूजा में शिव सुमन का, फल मोहि कहहु सुनाय।
प्रश्न कीन्ह सादर यह, नारद शिव सन जाय।

विधि निर्णय मैं कहहु मुनीषा।हों प्रसन्न जाते गौरीशा।
बेल कमल शत पत्र सुहावन।पारब्रह्म हर के मनभावन।
शंख पुष्प से शिव आराधहि।श्री प्राप्ति सुंदर जल साधहि।
शतदल बीस पत्र एक होई। साहस बेलपत्र आधा सोई।
एक प्रस्थ सोलह पल का है।पल एक दस टंक का ही है।
यह परिमाण सकाम साधना।पूजन पूरी सकल कामना।
पार्थिव लिंग कोटि दस पूजा।पावइ राज्य और हो नृप जा।
चावल चंदन अखंड जलधारा। शिव संतुष्ट लिंग के द्वारा।
बेलपत्र शत पदम चढ़ावे।पुष्पन संग प्रीति शिव पावे।
धूप दीप नैवेद्य आरती। क्षमा विसर्जन मिले सुख मती।
प्रदक्षिणा नमस्कार सुखदायक। पूजा भोगहु राज्य प्रदायक।
स्वयं प्रधानहु मुक्ति प्रधान।पूजा मात्र मिलंइ फल नाना। 
राग मुक्त इच्छा व्रतधारी।पचास कमल पुष्प हितकारी।
कन्या विद्या वाणी नाना। ज्ञान ध्यान विज्ञान सुहाना।
यश कीर्ति सिद्धि उत्तम फलदाई। मृत्युंजय जप सदा सहाई।
मुक्ति मुक्ति वांछित फल पावे। जो शिव का स्वरूप मन लावे।
फल इच्छित पावइ बहु भांती।भगति श्रेष्ठ शिव मन जेहि भाती।
हरसिंगार हर प्रीति अपारा।सुख संपति देते संसारा।
राई कुसुम पूजि शिवशंकर।मृत्यु शत्रु जानउ निश्चित कर।
अइस कुसुम नहिं यही संसारा। जो पवित्र नहीं शिवहिं पियारा।
छांडि केतकी चंपा जगती।हरषि चढ़ाओ पांवों भगती।
चावल सुनहु प्रमाण चढावन। लक्ष्मी बढे होय गृह पावन।
होय अखंडित भक्ति भावना।छह तीनि प्रस्थऔर फल दो ना।
पूजि रुद्र चावल संग पावन।अर्पित वस्त्रहु शुभ्र सुहावन।
सुंदर यह विधान जग जाना। भक्त चढावहिं अक्षत नाना।
श्रीफल गंध पुष्पादि चढ़ावे।धूप दीप पूजा फल पावे।
देइ दक्षिणा जो मन भाई।यथा शक्ति विधि सुलभ कहाई।
अंग सहित ले मंत्र पुनीता।एक लक्ष्य पूजा परतीता।
द्वादश ब्राम्हण भोज करावे। एक सौ आठ मंत्र जप जावे।
एक लाख फल तिल कारि अर्पण।पाप नाशि हों देतइ तर्पण।
करन मात्र नासहिं सब पापा।पूर्व जन्म के सब दुख शापा।
ग्यारह फल अरु चौसठि मासा।एक लाख तिल सम परिभाषा।
हित कामना हेतु करि पूजन।ब्राम्हण भोज महा उत्तम धन।
उत्पन्न दुख पातक जो होहीं।पूजा करति भस्म हो सोंही।
प्रत्येक कार्य हित पूजा हर की।जलधारा शिव मंगल मग की।
आठ प्रस्थ जो संभु चढ़ावे।सुख की वृद्धि स्वर्ग सम पावे।
सत रुद्रीय अरु मंत्र एकादश।रुद्र सूक्त के हों सारे वश।
अंत नमः कहि कहिआराधहि।ओम प्रणव जप सब बिधि साधहि।
शास्त्रोक्त मंत्र सन जल की धारा।गुरु सों समझि करे बहु बारा।
शुभ संतान देंय सुखकारी। मिटय कलह अरु पातक भारी।
तेलधार शिव हरषि चढ़ावे।करि विनाश जगती अरि पावे।
मधु सन पूजि यक्ष फल पावे। रस ईश्वर मंगल सुख आवे।
मुक्ति भुक्ति सूरसरि जलधारा।दस हजार संख्या महि डारा।
ग्यारह ब्राह्मण भोज करावे।जरें पापा पावन फल पावे।
पुत्र पुत्रादि महेश्वर लोका।जीव जाय ले भगति विवेका।
कोटी सूर्य सम करइ प्रकाशा।शिव विमान चढि रमय अकाशा।
प्रलय पर्यंत साथ शिव रहई।अविनाशी ज्ञान मोक्ष को लहई।
जो पूछेउ मुनि सब कहा, सर्व काम हित हेतु।
उमा सहित संबंध शिव,सदा परम सुख केतु।

चतुरानन नारद कही, पावन कथा पवित्र।
भे कृतार्थ मन मंह अमित,चाहति और चरित्र।

सृष्टि श्रंगार सुनहु मुनि पावन।जैस सुनेंउ भाषउं मन भावन।
अंतर्ध्यान संभु भगवाना।भे प्रसंन्न हरि कृपा निधाना।
परम कृपालु भगति सुख सुंदर।जग उदार बड को सम हरि हर।
मैं फिर हंस विष्णु बाराहा।धरे रूप जगती निर्वाहा।
कारण स्पष्ट करन भलि रचना।सृष्टि निर्माण पूर्ण प्रिय बचना।
चरन कमल धरि शिव का ध्याना। चतुरानन प्रिय अइस बखाना।
जान हेतु गति ऊपर निश्चल। हंस परम तजि नहिं कवनव भल।
तत्व अतत्व मांहि बड ज्ञाना।क्षीर नीर के रहय समाना।
ज्ञान अज्ञान निरूपण कारी।निर्णय वान हंस हितकारी।
यही कारण विधि हंस स्वरूपा।भये विष्णु वराह अनुरूपा।
जाने हित नीचे गति निश्चल।भाव कल्प रचना हरि अविचल।
वाराह कल्प तब ते कहलाया।सुनहु सृष्टि रचना मन भाया।
अंतर्ध्यान भये हरि, नमस्कार मैं कीन्ह।
ज्ञान प्राप्त भा विष्णु को,सृष्टि रचन मै लीन।

भली-भांति हरि मोहि उपदेशा।अंतर्ध्यान भये फिरि ईशा।
सृष्टि कामना हित कारि ध्याना।हरि अरु शंभु जगतपति जाना।
अति महान सुमिरेंउ मैं दोऊ।सकल सृष्टि जानय सब कोऊ।
जल निर्माण प्रथम मैं कीन्हा।अंजलि जल मिलाय एक लीन्हा।
फल स्वरुप एक अंड सुहावा।चौबिस तत्व विराट कहावा।
संशय लोकि दशा यह सारी।द्वादश वर्ष कीन्ह तप भारी।
ध्यान विष्णु करता मैं किन्हा। अति प्रसन्न कमलापति चिन्हा।
बर मांगहु अस भइ प्रिय बानी। शिव प्रसाद बड दोऊ ध्यानी।
मोहि शिव आश्रय कीन्ह तुम्हारे। प्रिय ताते वड देव हमारे।
अंड विराट चेतना नाही।चौबिस तत्त्व महान सुहांही।
चेतनता शुचि अंड विराजे। ध्यान ज्ञान की कीरति राजे।
धरि शिव ध्यान अनंत स्वरूपा।अंड प्रवेश कीन्ह हरि भूपा।
साहस नेत्र सिर अवयव निकले।धरा अमित चेतनता को ले।
अधिपति विष्णु सात भे लोका।ढिग प्रिय शिव स्थान विलोका।
स्थान पु‌ण्य कैलाशहु पायहु।जित स्वरूप शिव परम सुहायहु।
करन सृष्टि मैं लागेंउ रचना। अविद्या सृष्टि भई उत्पन्ना।
प्रधानता तम नहिं जाइ बखानी।रचना स्थावर सनमानी।
मुख्य सृष्टि हित सुमिरेहुं शिव को।भा संतोष तबंहु नहिं हिय को।
सुरन साख की करि निर्माणा।साधन कार्य कठिन नहिं जाना।
शिव आयसु पा नव सृष्टि। रजो गुणी थी जाकी दृष्टि।
पांच प्रकार सृष्टि यहि भांती।चहंहु रचन सर्ग भलि-भांती।
भौतिक सूक्ष्मऔर वैकारिक महा सर्ग करिके निर्धारित।
प्रकृति सृष्टि भइ आठ प्रकारा।विकृति कुमारहु आविर्भारा।
द्विजात्मक सर्ग महा उपयोगी। सनकादिक कुमार अरु योगी।
मानस पुत्र मोर सनकादिक।उत्पन्न वैराग्य शील थे बड जग।
रचन सृष्टि बैराग्य देखावा। मोहि अत्यंत क्रोथ तब आवा।
अश्रु बिंदु नयनन सों टपके।तबहिं विष्णु नारायण प्रकृटे।
मोहि सम़झाय शंभु तप पावन। सादर करहु जाय मन भावन।
कीन्ह बहुत तप मैं कछु काला। प्रकृटे शंकर दीन दयाला।
होइ प्रसंन्न सृष्टि की रचना।कहेउ रचन जो जाइ न बरना।
देवाधि देव महेश्वर पावन। निज अनुहार रुद्र मन भावन।
देख बिनय कीन्हेउ बहु भांती।तब हर हंसे जगत आराती।
जन्म मरण पूजा की रचना।करउ देव बोलेउ अस बचना।
अइसि अशोभन सृष्टि न भाई।महादेव तब कहा सुनाई।
कर्म बस परइ जीव दुख सागर। दुखियन उद्धारक गंगाधर।
ज्ञान प्राप्त गुरु मूर्ति सन,मैं करवइहहुं जाइ।
दुख सुख वाली सब प्रजा, जाइ निरूपिहंहु आइ।

माया डरिहैं नहीं कछु बाधा। शंकर भगति समुद्र अगाधा।
पंजीकरण करि पंच भूत का। शब्दादि वायु उनके स्वरूप का।
स्थूल अग्नि जल अरु अकाशा। पृथ्वी पर्वत वृक्ष प्रकाशा।
युग पर्यंत कला अरु काला। सृष्टि पदारथ रचेउ विशाला।
मन तंवहूं संतोष न आयहु।अंबा सहित ध्यान शिव लायहु।
अन्य पदार्थ सृष्टि करि रचना।सुनहु किन्ह जो सादर वरना।
ह्द भृगु सिर उत्पंन्न अंगिरा।दृग मरीच से प्रकट सब धरा।
उदान पुलस्त्य समान वशिष्ठा।कर्ण सों प्रकट पुलह मुनि श्रेष्ठा।
कान सों अत्रिअपन कृतु जाए। प्राण से दत्त ऋषि निर्माये।
गोदी से तुम नारद जाये।छाया मुनि कंदर्प सुहाये।
साधन ते साधन सब धर्मा।निज संकल्प जगत मैं जन्मा।
बहु बिधि कृतार्थ दो रूप बनावा।अर्धनारी अरु नरहु सुहावा।
परम पुरुष साधक जग जाई। मनु सतरूपा नारी सुहाई।
स्वयंभुव मनु योगिन नारी। परम सुंदरी जाय वखानी।
कर विधि मिथुन के ही द्वारा। मनु जन सृष्टि कीन्ह संसारा।
प्रियव्रत उत्तानपाद सुत जाये।कन्या तीनीहु लोक सुहाये।
आकूति देवहुति नाम प्रसूती।मुनिन वरी करहु परतीती।
देवहुति कंदर्प आकूति रुचि को।प्रसूति दक्ष प्रजापति शुचि को।
तिन्ह संतानन ते जग जाया।रचि आकूति यज्ञ सुत पाया।
देवहुति कंदर्प बहुत सुत जाये।चौबिस कन्या दक्ष सुहाये।
श्रद्धा अधिक तेरह बाला।धर्म दक्ष दीन्हेउ शुची काला।
श्रद्धा लक्ष्मी सब बड़ी पावन।जगदंबा सम अमित सुहावन।
भरी त्रिलोकी जिन संताना।प्रादुर्भाव जासु जग जाना।
कर्मानुसार शिव आज्ञा दीन्ही। ब्राह्मण श्रेष्ठ पूण्य शुचि लीन्ही।
कन्या साठि केरि उतपत्त्ति।कल्प भेद से दक्षहु सत्य।
तिन्ह संतानन सकल चराचर।शेष न शून्य जहां कोई नर।
शिव आज्ञा सिर धरि चतुरानन। रक्षा सती कीन्ह शिव निज पन।
अग्रभाग त्रिशूल सों अपने।रक्षा सती कीन्ह शंकर ने।
निज प्रभाव हरि करि निर्माणा। प्रकट लोक जगती कल्याणा।
उद्धार भक्त शिव के हित जाई।लीला पावन अमित सुहाई।
बाम भाग बैकुंठ सुहावा। दक्षिण अंग रूप मैं आवा।
रूद्र विष्णु मैं तीनि प्रधाना।सत रज तम गुण जगती जाना।
मैं प्रधान इन तीनि गुणन का।जानइ जगत करउं वर्णन का।
सुरा सती अरु लक्ष्मी देवी। प्रकट जगत भक्तन सुर सेवी।
सती तीनि जग रूप उदारा।परा शिवा शुचि शक्ति अपारा।
अर्धांगिनि शिव सती स्वरूपा। जानइ जगत देवि अनुरूपा।
पिता यज्ञ तन पावन त्यागा।शिवपद जन्म-जन्म अनुरागा।
नारद सन प्रिय सुनि के वानी। प्राप्त परम पद की भवानी।
पार्वती होइ करि तप भारी।बरेहु शंभु आन्नद बिहारी।
मुक्ति भुक्ति दायक बहु नामा। रूप महा शिव शंकर बामा।
तीनों गुण मय सुर अरु देवी।उत्तम रची सृष्टि सुख सेवी।
सुनि सप्तम यह सृष्टि विधाना। आज्ञा शंभु रचा जग नाना।
चतुरानन यही विधि कहा, नमस्कार मुनि कीन्ह।
शिव कब गे कैलाश पर,पूछि प्रेम बश लीन्ह

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